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'आश्रय के अधिकार नाम की भी कोई चीज है', सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को फटकारा, पीड़ितों को दस लाख मुआवजा देने के निर्देश

प्रयागराज में एक वकील, एक प्रोफेसर और तीन अन्य के घरों को ध्वस्त करने का मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरह इस मामले में घर गिराया गया, वो हमारी अंतरात्मा को झकझोरता है.

बुलडोजर एक्शन, सुप्रीम कोर्ट

Written by Satyam Kumar |Published : April 1, 2025 2:29 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के प्रयागराज में बुलडोजर कार्रवाई के लिए यूपी सरकार और प्रयागराज डिवेलपमेंट ऑथोरिटी को फटकार लगाई है. शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले में नोटिस मिलने के 24 घन्टे के अंदर मकान को गिरा दिया गया. बुलडोजर कार्रवाई पूरी तरह से अमानवीय और गैरकानूनी थी. जस्टिस अभय एस ओका की अध्यक्षता वाली बेंच जे कहा कि देश में क़ानून का शासन है और देश के नागरिकों के घर को इस अंदाज़ ने नहीं गिराया जा सकता. प्रयागराज में एक वकील, एक प्रोफेसर और तीन अन्य के घरों को ध्वस्त करने का मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरह इस मामले में घर गिराया गया, वो हमारी अंतरात्मा को झकझोरता है. राइट टू शेल्टर या क़ानूजी प्रक्रिया नाम की भी कोई चीज होती है, उसे यूं ही धता नहीं बताया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने प्रयागराज विकास प्राधिकरण को आदेश दिया है कि छह पीड़ितों को 10 - 10 लाख रूपये का हर्जाने का भुगतान करे.

चिपकाकर, नोटिस सर्व करने का काम बंद होना चाहिए: SC

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने याचिका पर सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट ने घरों के ध्वस्तीकरण के तरीके से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह घटना हमारी अंतरात्मा को झकझोरता हैं. आवासीय परिसर को ध्वस्त किया गया है. यहां कुछ ऐसा हुआ है जिसकी हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस सर्व करने के तरीके से भी नाराजगी जाहिर की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "यह नोटिस चिपकाने का काम बंद होना चाहिए. इन लोगों ने अपने घर खो दिए हैं,"

अदालत ने पाया कि ध्वस्तीकरण के लिए जो शो-कॉज नोटिस जारी किया गया था, वह तय प्रक्रिया के अनुसार नहीं था. यह नोटिस 18 दिसंबर 2020 को जारी किया गया था और उसी दिन चिपकाया गया था, जबकि यह दावा किया गया था कि इसे व्यक्तिगत रूप से देने के लिए दो प्रयास किए गए थे.

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नोटिस सर्व करने में अनदेखी से SC ने जताई नाराजगी

ध्वस्तीकरण का आदेश 8 जनवरी 2021 को दिया गया, लेकिन इसे पंजीकृत डाक से नहीं भेजा गया. पहले पंजीकृत डाक संचार 1 मार्च 2021 को भेजा गया था, जो 6 मार्च 2021 को प्राप्त हुआ. इसके बाद, ध्वस्तीकरण अगले दिन कर दिया गया, जिससे संबंधित व्यक्तियों को अपील करने का कोई अवसर नहीं मिला. अदालत ने कहा कि ध्वस्तीकरण से पहले उचित अवसर प्रदान करने का उद्देश्य महत्वपूर्ण है, और मामले में जो कदम उठाए गए हैं, वह उचित अवसर प्रदान करने का तरीका नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यूपी शहरी योजना अधिनियम की धारा 43 के तहत नोटिस सेवा के लिए नियमों का पालन करना आवश्यक है. यदि व्यक्ति को नहीं पाया जाता है, तो नोटिस को उसके अंतिम ज्ञात निवास स्थान पर चिपकाना चाहिए. अदालत ने यह स्पष्ट किया कि नोटिस की व्यक्तिगत सेवा के लिए वास्तविक प्रयास किए जाने चाहिए. "जब प्रावधान कहता है कि यदि व्यक्ति नहीं पाया जाता है, तो यह स्पष्ट है कि व्यक्तिगत रूप से नोटिस देने के लिए असल प्रयास किए जाने चाहिए थे."

पीड़ितों को मिलेगा दस-दस लाख का मुआवजा

पहले, 24 मार्च 2025 के दिन, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को अपने घरों का पुनर्निर्माण करने की अनुमति देने पर विचार किया था, बशर्ते वे यह वचन दें कि यदि उनकी अपीलें खारिज हो जाती हैं, तो वे अपने खर्च पर संरचनाओं को ध्वस्त कर देंगे. 

आज, अपीलकर्ताओं के वकील ने कहा कि उनके पास अपने घरों का पुनर्निर्माण करने के लिए वित्तीय साधन नहीं हैं और उन्होंने मुआवजे की मांग की. मौजूद अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटारामणि ने इस मांग का विरोध करते हुए कहा कि प्रभावित व्यक्तियों के पास वैकल्पिक आवास हैं. हालांकि, अदालत ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया. जस्टिस अभय एस ओका ने कहा कि मुआवजा ही एकमात्र तरीका है जिससे अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जा सके. हम इसे पूरी तरह से अवैध के रूप में रिकॉर्ड करेंगे. और प्रत्येक मामले में 10 लाख रुपये का मुआवजा निर्धारित करेंगे. यही एकमात्र तरीका है जिससे यह प्राधिकरण हमेशा उचित प्रक्रिया का पालन करना याद रखेगा.

अतीक अहमद की संपत्ति मान घर ढहा दिया

इस मामले में पीड़ितों ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया था कि यूपी सरकार ने इस संपत्ति को गैंगस्टर अतीक अहमद का मानकर उनकी संपत्तियों को ढहा दिया है. याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि राज्य ने उनकी संपत्तियों को गैंगस्टर-राजनीतिज्ञ अतीक अहमद से गलत तरीके से जोड़ा है.

दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश सरकार ने तर्क किया कि संरचनाएं अवैध थीं और निवासियों ने अपने पट्टे की अवधि समाप्त हो चुकी थी. इसने राज्य ने तर्क किया कि याचिकाकर्ताओं का पट्टा 1996 में समाप्त हो गया था, और उनके दोबारा से पट्टे के आवेदन को साल 2015 और 2019 में अस्वीकृत कर दिया गया था. इसलिए राज्य सरकार अपनी कार्रवाई के पीछे कानूनी आधार रखती है. सुप्रीम कोर्ट से पहले राज्य सरकार की इन दलीलों को स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पहले याचिकाकर्ताओं की चुनौती को खारिज कर दिया था. इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

स्पष्ट है कि, सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले से राज्य सरकार को कड़ा झटका लगना तय है.