मामला पति-पत्नी के बीच का है. पति को अपनी पत्नी के शोध-पत्र से ऐसी खीझ उठी की, उन्होंने प्लेगरिज्म का दावा करके विश्वविद्यालय में शिकायत दर्ज करा दी. विश्वविद्यालय ने पति की शिकायत पर कमेटी गठित की, लेकिन पति को महसूस हुआ कि कुछ समय तक कोई विश्वविद्यालय की ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई तो उसके बाद पति हाई कोर्ट पहुंच गए. जहां हाई कोर्ट ने पति की सारी हेकड़ी उतार दी. हाई कोर्ट ने अगर पति को पत्नी के किसी बात से तकलीफ है या दुर्भवाना है, तो उसे ठीक करने के लिए अदालत उपयुक्त जगह नहीं है.
राजस्थान हाई कोर्ट ने पति की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अगर पति अपनी पत्नी के खिलाफ कोई दुर्भावना रखता है तो उसे पूरा करने के लिए अदालत उसकी उचित जगह नहीं हो सकती है. अदालत ने स्पष्ट कहा कि पति की ये याचिका कानूनी प्रक्रिया का सरासर दुरूपयोग है. अदालत में कई उचित मुकदमे इस तरह की तुत्छ मामलों के चलते लंबित रह जाते हैं.
हाई कोर्ट ने कहा,
"जिस तरह खराब सिक्के ,अच्छे सिक्कों को प्रचलन से बाहर कर देते हैं, उसी तरह खराब मामले अच्छे मामलों की सुनवाई समय पर नहीं होने देते. अदालतों में तुच्छ मामलों की भरमार के कारण वास्तविक और सच्चे मामलों की कई वर्षों तक उनकी सुनवाई नहीं हो पाती है, जो पक्ष तुच्छ, गैरजिम्मेदार और निरर्थक मुकदमा शुरू करता है और उसे जारी रखता है या अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग करता है, उसे कठोर दंड दिया जाना चाहिए, ताकि अन्य लोग ऐसा करने से बचें."
हाई कोर्ट ने आगे कहा,
"इस मामले को तब और गंभीरता से लिया जाना चाहिए जब खुद को वैश्विक आध्यात्मिक नेता बताने वाले लोग इस तरह के तुच्छ मुकदमों में शामिल हों और न्यायालय की कार्यवाही का इस्तेमाल अपने निजी हिसाब-किताब को निपटाने या अपने निजी अहंकार को पोषित करने के लिए करें."
हाई कोर्ट ने पति की याचिका खारिज करते हुए कहा कि इस न्यायालय के मंच का उपयोग व्यक्तिगत रंजिशों या विवादों को निपटाने के लिए नहीं किया जा सकता.