नई दिल्ली: देश में हर दिन अदालतों में कई मामले आते हैं, अपराधों के खिलाफ पुलिस स्टेशन में एफआईआर (FIR) दर्ज की जाती हैं और दुर्भाग्यवश ज्यादातर मामलों में शिकायतकर्ता को न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं। ऐसी भी कई परिस्थितियां होती हैं जब शिकायतकर्ता की एफआईआर दर्ज करने के बाद और मामले में फैसले से पहले ही मौत हो जाती है. अगर कभी कार्यवाही के दौरान ऐसा होता है तो क्रिमिनल केस में प्रोसीडिंग्स (Proceedings) आगे कैसे बढ़ती हैं.
आइए समझते हैं कि किसी आपराधिक मामले की कार्यवाही के दौरान अगर शिकायतकर्ता की मौत हो जाती है तो प्रोसीडिंग किस तरह आगे बढ़ेगी, इसके कई विकल्प हैं।
शिकायतकर्ता की मौत के बाद उसकी एफआईआर को किन परिस्थितियों में एक साक्ष्य के रूप में अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है, और कब ऐसा नहीं हो सकता है। यह भी जानते हैं कि यदि शिकायतकर्ता के इस दुनिया से चले जाने के बाद अदालत के समक्ष मामले का प्रतिनिधित्व कौन करेगा.
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि एक आपराधिक मामले की कार्यवाही के दौरान अगर इसके शिकायतकर्ता की मौत हो जाती है, तो उसके द्वारा दर्ज की गई एफआईआर (FIR) एक पर्याप्त साक्ष्य (Substantial Evidence) के रूप में नहीं मानी जाएगी।
आमतौर पर शिकायतकर्ता की मौत के बाद एफआईआर को साक्ष्य के रूप में अदालत के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें एक अपवाद (Exception) है। शिकायतकर्ता की मौत अगर प्राकृतिक तरह से नहीं हुई है और एफआईआर में दर्ज शिकायतों का उनकी मौत से सीधा लिंक है, या ऐसा शक है कि शिकायतकर्ता की मौत का कारण उनका शिकायत करना हो सकता है, तो ऐसे में एफआईआर का प्रयोग अलग तरह से किया जाता है।
ऐसी परिस्थिति में एफआईआर शिकायतकर्ता का 'मृत्युकालिक कथन' (Dying Declaration) मानी जाएगी। यह तब होगा अगर एफआईआर साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 के मानकों पर खरी उतरेगी।
यह बात उच्चतम न्यायालय (Supreme Court of India) द्वारा 'दामोदर प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य' (Damodar Prasad Vs State of UP) के मामले में स्थापित की गई थी।
शिकायतकर्ता की मौत के बाद अदालत में मामला आगे कैसे बढ़ता है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मैजिस्ट्रेट सिर्फ इस आधार पर कोर्ट की कार्यवाही को आगे नहीं बढ़ा सकता कि शिकायतकर्ता द्वारा नियुक्त वकील अदालत में मौजूद है।
इस परिस्थिति में प्रोसीडिंग को आगे बढ़ाने हेतु 'आपराधिक प्रक्रिया संहिता' (Code of Criminal Procedure) की धारा 302 के तहत मैजिस्ट्रेट को 'किसी व्यक्ति' को इसकी अनुमति देनी होगी और जाहिर-सी बात है कि ये 'व्यक्ति' वकील भी हो सकता है।
'जिम्मी जहांगीर मदन बनाम बॉली कैरियप्पा हिंडले (मृत)' (Jimmy Jahangir Madan v. Bolly Cariyappa Hindley (dead)' मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह ऑर्डर जारी किया था कि शिकायतकर्ता के कानूनी वारिस (Legal Heirs) भी उनकी जगह अदालत में प्रस्तुत हो सकते हैं।