नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने मिनर्वा मिल्स के मामले में मौलिक संरचना की अवधारणा को लागू करने पर महत्वपूर्ण फैसला दिया। शीर्ष अदालत ने पाया कि संविधान संसद की संविधान को संशोधित करने की क्षमता को सीमित करता है। परिणामस्वरूप, संसद अपने सीमित अधिकार का उपयोग स्वयं को असीमित अधिकार प्रदान करने के लिए नहीं कर सकती है। इसके अलावा, अदालत के बहुमत ने फैसला किया कि संसद की परिवर्तन करने की क्षमता उसकी नष्ट करने की शक्ति के समान नहीं है। आइये जानते है इस मामले को विस्तार से -
इस मामले में बीमार कपड़ा उपक्रम (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1974 के तहत , संसद द्वारा पारित किया गया था। इसकी स्थापना व्यापक सार्वजनिक हित के लक्ष्य को पूरा करने के लिए की गई थी, जिसका मतलब कपड़ा कंपनी की खराब संपत्तियों का पुनर्निर्माण और एक व्यवहार्य समाधान का विकास करना था ।
इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना था कि सामान उचित कीमत पर उपलब्ध हो ताकि आम जनता को नुकसान न हो। मिनर्वा मिल्स लिमिटेड (Minerva Mills Limited) एक सीमित देयता निगम वाली कपड़ा कंपनी थी। यह रेशम वस्त्र निर्माण उद्योग में था।
उद्योग (विकास विनियमन) अधिनियम, 1951 की धारा 15 के तहत, केंद्र सरकार ने 1970 में मिनर्वा मिल्स लिमिटेड के कामकाज तंत्र की जांच के लिए एक समिति का गठन किया।
याचिकाकर्ता ने अपनी दलीलों में अलग- अलग बिंदु उठाए। इसने मिनर्वा मिल्स लिमिटेड के प्रबंधन और नियंत्रण को जब्त करने के केंद्र सरकार के आदेश का विरोध किया और साथ ही इसने 39वें संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता का विरोध किया, जिसने 9वीं अनुसूची की प्रविष्टि (entries) 105 के तहत बीमार कपड़ा उपक्रम (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम पेश किया और, अंतत इसने संविधान के अनुच्छेद 31 बी का विरोध किया।
इसमें यह मुद्दा उठाया गया कि क्या संविधान का (42वाँ संशोधन) अधिनियम 1976, धारा 4 और 5 संवैधानिक हैं? और इसके साथ ही कि क्या अनुच्छेद 368 के खंड 4 और 5 संवैधानिक रूप से वैध हैं?
अनुच्छेद 368 का उद्देश्य संविधान में इस प्रकार संशोधन करना है कि संविधान की मूल संरचना में कोई बदलाव न हो।
इस मामले में उन्होंने धारा 5(b), 19(3), 21, 25, और 27 (नेशनलाइजेशन एक्ट, 1974 के 2 शेड्यूल के साथ पढा जायेगा) की वैधता को चुनौती दी।और इसके साथ ही 42वें अमेंडमेंट एक्ट, 1976 की धारा 4 और 55 को भी शामिल किया ।
न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि संसद के पास मौलिक संरचनात्मक अवधारणा को खतरे में डाले बिना संविधान को बदलने का अधिकार है।और इलके साथ ही मौलिक अधिकारों को संसद द्वारा तब तक संशोधित किया जा सकता है जब तक वे बुनियादी संरचनात्मक सिद्धांत के अनुकूल है। इस केस में न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा को सीमित करने वाली धारा को न्यायालय ने खारिज कर दिया।
इस निर्णय के जवाब में 1976 का 42वां संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि राज्य नीति के सभी या किसी भी निदेशक सिद्धांत को अनुच्छेद 14 और 19 के मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी।
यद्यपि संविधान के अनुसार राज्य को कानून स्थापित करते समय राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों पर विचार करना आवश्यक है, लेकिन ऐसे डीपीएसपी को केवल कानूनी तरीकों से ही प्राप्त किया जा सकता है। DPSPs प्राप्त करने के लिए संसद भाग III के मौलिक अधिकारों की उपेक्षा नहीं कर सकती।
परिणामस्वरूप, यह निर्धारित किया जा सकता है कि संसद को दिया गया परिवर्तन का अधिकार अप्रतिबंधित नहीं है, वह भी सीमित है । संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को सीमित मात्रा में शक्ति प्रदान करता है। संसद संविधान की मूल संरचना को बदलने की इस शक्ति से आगे नहीं बढ़ सकती। कोई भी क़ानून या संशोधन जो मौलिक संरचनात्मक अवधारणा से परे या परे जाने का प्रयास करता है, उसे गैरकानूनी घोषित किया जाएगा। कोर्ट ने आगे कहा कि न्यायिक समीक्षा के अधिकार को रद्द नहीं किया जा सकता ।
इस केस में मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एनएल उंटवालिया, न्यायमूर्ति एसी गुप्ता और न्यायमूर्ति पीएस कैलास सहित अधिकांश न्यायाधीश शमिल थे और इन सब ने अपना एक मत दिया ।इस मामले में न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने असहमतिपूर्ण राय लिखी।
न्यायमूर्ति भगवती 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 55 को रद्द करने के बहुमत के फैसले के पक्ष में थे-
उनका मत था कि बुनियादी सुविधाएँ संविधान का अभिन्न अंग हैं। इसका खंड (4) असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान की दो बुनियादी विशेषताओं का उल्लंघन करता है, पहला संसद की सीमित संशोधन शक्ति। दूसरा न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध और इसके साथ ही खंड (5) असंवैधानिक और शून्य है, इसका प्रभाव संविधान को अनियंत्रित में बदलने का था।