यह हत्या का रेयरेस्ट ऑफ रेयर मामला था. आरोपी शख्स को अपने ही परिवार के छह लोगों की हत्या के लिए फांसी की सजा हुई थी, उस आरोप था कि उसने ऐसा 'जमीन' के लिए, शख्स की राहत पाने के लिए पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट, फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. अब जहां व्यक्ति को फांसी होनी थी, सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति को आरोपों से बरी करते हुए रिहा करने के निर्देश दिए. आइये जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच और सबूत में ऐसी क्या गलती पकड़ा, जिससे शख्स को जीवनदान मिल गया...
सुप्रीम कोर्ट ने एक आरोपी की सजा को रद्द कर दिया है, जिसे उसके छह परिवार के सदस्यों, जिसमें चार बच्चे और एक भाई शामिल हैं, के क्रूर हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी. कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा की गई जांच में खामियों और सबूतों की गलत वसूली को आधार बनाया. सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस की दोषपूर्ण जांच का हवाला देते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष हत्या का मकसद, अंतिम बार साथ देखे जाने या बरामदगी स्थापित करने में विफल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्य संग्रह में भी लापरवाही होने का जिक्र करते हुए कहा कि जांच में लापरवाही थी, किसी स्वतंत्र गवाह का बयान नहीं लिया गया और सबूतों को भी ठीक से एकत्रित नहीं किया गया था. साथ ही अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष शख्स के खिलाफ उचित संदेह से परे अपराध साबित करने में असफल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने शख्स की मौत की सजा रद्द कर दी है.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने मामले की सुना. पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने तीन तथाकथित आरोपित परिस्थितियों में से एक को भी साबित नहीं कर पाया, अर्थात् 'कारण', अंतिम बार देखा जाना और वसूली. यदि हम तर्क के लिए हथियारों की वसूली के सबूत को भी स्वीकार कर लें, तो भी फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट में रक्त के समूह के बारे में कोई संकेत नहीं है.
अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष का दावा इस मामले में पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था, जिसमें यह दावा किया गया था कि अपीलकर्ता ने भूमि विवाद के कारण अपने परिवार के सदस्यों की हत्या की है. अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध स्थल के आसपास उपस्थित स्वतंत्र गवाहों की जांच नहीं की और केवल इच्छुक गवाहों के बयान पर निर्भर रहा. सबूतों के आधार पर शीर्ष अदालत ने आरोपी को राहत कर दिया.