नई दिल्ली: भारत देश की न्यायिक व्यवस्था दुनिया की सबसे पुरातन न्यायिक व्यवस्थाओं में से एक है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के तीन स्तंभों में से एक न्यायपालिका (Judiciary) है और इसके तहत निचली अदालत, राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय (High Courts) और उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) का प्रावधान है जिनके माध्यम से देश के नागरिकों को न्याय मिल पाता है।
इन न्यायिक संस्थानों के भार को बांटने के लिए देश में 'वैकल्पिक विवाद समाधान' (Alternative Dispute Resolution) का भी ऑप्शन है जिसके तहत कुछ ऐसे विकल्प हैं, जिन्हें कानून से मान्यता प्राप्त है और बिना अदालत जाए, इनके जरिए जनता न्याय पा सकती है; एडीआर (ADR) के तहत आने वाली प्रक्रियाओं के तहत लिए गए फैसले भी उसी तरह बाध्य होते हैं जैसे अदालत के फैसले। इनमें 'माध्यस्थम' और 'मध्यस्थता' शामिल हैं।
'माध्यस्थम' और 'मध्यस्थता' की परिभाषा क्या है, इन्हें किन कानूनों के तहत लागू किया जाता है, इनकी प्रक्रिया क्या होती है और ये दोनों वैकल्पिक विवाद समाधान के अंतर्गत आते हुए भी एक दूसरे से अलग कैसे हैं, आइए विस्तार से समझते हैं.
'माध्यस्थम' यानी आर्बिट्रैशन (Arbitration) में विवाद में फंसे दोनों पक्षों के लोग मिलकर, आपसी सहमति से, एक मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) को चुनते हैं और वही उनके डिस्प्यूट को सुलझाता है. बता दें कि आर्बिट्रेशन की सुनवाई सार्वजनिक रिकॉर्ड की बात नहीं होती।
आमतौर पर बिजनेस अग्रीमेंट्स में यह क्लॉज होता है कि अगर दोनों पक्षकारों के बीच किसी विषय पर विवाद होगा तो उसका निपटारा या समाधान माध्यस्थम उर्फ आर्बिट्रेशन के जरिये निकाला जाएगा।
भारत में आर्बिट्रेशन को लेकर कई कानून पारित हुए लेकिन अब जिस कानून के तहत देश में माध्यस्थम की प्रक्रिया पूरी की जाती है, वो 'माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996' (The Arbitration and Conciliation Act, 1996) है। इस कानून को पहली बार 1996 में पारित किया गया था जिसके बाद कुल मिलाकर इसे चार बार संशोधित किया जा चुका है- 2003, 2015, 2019 और 2021।
'मध्यस्थता' यानी मीडिएशन (Mediation) भी 'वैकल्पिक विवाद समाधान' के तहत आने वाला एक विकल्प है जिसके माध्यम से विवादों को सुलझाया जाता है। ये एक स्वैच्छिक, बाध्यकारी प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष और तटस्थ मध्यस्थ विवादित पक्षों को समझौते पर पहुंचने में मदद करता है।
एक मध्यस्थ कोई समाधान नहीं थोपता बल्कि एक अनुकूल वातावरण बनाता है जिसमें विवादित पक्ष अपने सभी विवादों को सुलझा सकते हैं।
'उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019' (Consumer Protection Act, 2019), 'कंपनी मध्यस्थता नियम, 2016' (Companies Mediation Rules, 2016), 'वाणिज्यिक न्यायालय (संस्था-पूर्व मध्यस्थता और निपटान) नियम, 2018' (The Commercial Courts (Pre-Institution Mediation and Settlement) Rules, 2018) और 'वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग और उच्च न्यायालयों के वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग (संशोधन) अधिनियम, 2018' (Commercial Courts, Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts (Amendment) Act, 2018) में विवादों का समाधान निकालने के लिए मध्यस्थता एक विकल्प है।
माध्यस्थम के मुकाबले मध्यस्थता को कम गंभीरता से लिया जाता है क्योंकि फिलहाल इसे लेकर कोई एकीकृत विधान (Unified Legislation) नहीं है। बता दें कि संसद के इस साल के मॉनसून सत्र में मध्यस्थता विधेयक, 2021 (The Mediation Bill, 2021) लोक सभा और राज्यसभा, दोनों सदन में पारित कर दिया गया है।
आर्थिक रूप से देखें तो 'मीडिएशन' 'आर्बिट्रेशन' से ज्यादा सस्ती प्रक्रिया है, इसका पूरा प्रोसेस भी काफी अनौपचारिक है और पक्षकार मध्यस्थ की मौजूदगी में आपस में बातचीत कर सकते हैं. साथ ही लोग इस प्रक्रिया को इसलिए भी चुनते हैं क्योंकि इनका प्रोसेस और फैसले ज्यादा लचीले होते हैं।
'माध्यस्थम' ज्यादा महंगा प्रोसेस है, इसकी प्रोसीडिंग कानून के तहत पूरी की जाती हैं इसलिए लचीली नहीं हैं और ये औपचारिक रूप से पूरी की जाती हैं, इस प्रक्रिया के माध्यम से जिस फैसले पर पहुंचते हैं, वो उसी तरह बाध्य होता है जैसे किसी अदालत का फैसला हो और इसमें पक्षकार आपस में बातचीत नहीं करते हैं।