डिजिटल पेमेंट प्लेटफॉर्म, यानि कि वे एप जो आपके बैंक अकाउंट को रजिस्टर आपको यूपीआई के जरिए कही भी पेमेंट करने की छूट देते हैं. अब इन प्लेटफॉर्म के पास यूजर की जानकारी होती है, जहां एक तरफ यूजर्स की प्राइवेसी का मामला होता है तो दूसरी तरफ जांच एजेंसी यानि पुलिस को साइबर अपराध की तहकीकात करनी पड़ती है. तो यहां पर सवाल है कि क्या पेमेंट प्लेटफॉर्म 'यूजर' की जानकारी जांच एजेंसी के सामने साझा कर सकता है. यही सवाल फोनपे की याचिका पर कर्नाटक हाई कोर्ट के सामने था, आइये जानते हैं कि कर्नाटक हाई कोर्ट ने इसे लेकर क्या फैसला सुनाया?
फोनपे की यह याचिका कर्नाटक हाई कोर्ट में जस्टिस एम नागप्रसन्ना की पीठ के सामने सुनवाई के लिए आई. याचिका में पेमेंट प्लेटफॉर्म फोनपे ने पुलिस द्वारा आपराधिक मामले की जांच में उसके पंजीकृत उपयोगकर्ताओं और व्यापारियों के लेनदेन की जानकारी या अकाउंट क्रेडेंशियल्स मांगने पर आपत्ति जताई थी. PhonePe ने सीआरपीसी की धारा 91 के तहत मिले नोटिस को चुनौती दी थी, जो किसी अदालत या पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी को किसी दस्तावेज़ या अन्य वस्तु के उत्पादन के लिए सम्मन या लिखित आदेश जारी करने का अधिकार देता है.
हाई कोर्ट ने फोनपे के इस तर्क को खारिज कर दिया कि बैंकर्स बुक्स एविडेंस अधिनियम के तहत पुस्तकों का निरीक्षण अदालत द्वारा आदेश पारित करने के बाद ही किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया नैतिकता संहिता) नियम, 2011 के नियम 3 में कहा गया है कि जांच अधिकारी के आदेश प्राप्त होने के 72 घंटों के भीतर जानकारी दी जानी चाहिए.
अदालत ने यहा भी कहा कि जनहित और क्राइम की जांच के बीच डेटा की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी. उपभोक्ता की प्राइवेसी जांच अधिकारियों के साक्ष्य सुरक्षित करने और जांच को तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने के वैध आदेश को कमतर नहीं कर सकता.
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि जब पारंपरिक अपराध कम हो गए हैं और नए युग के साइबर अपराध बड़ी संख्या में बढ़े हैं, तो तेज और प्रभावी प्रतिक्रिया की आवश्यकता है. पुलिस को कानून की सीमा के भीतर डिजिटल फूटप्रिंट्स का पता लगाने का अधिकार होना चाहिए जो अन्यथा देरी होने पर मिटा दिए जा सकते हैं.
हाई कोर्ट ने PhonePe की इस दलील को खारिज कर दिया कि डिजिटल भुगतान प्रणाली होने के नाते वह जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई जानकारी नहीं दे सकता. इस पर कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी एक वैधानिक प्राधिकारी है जो सीआरपीसी के तहत मिले शक्तियों के अनुसार जांच कर रहा है. हाई कोर्ट ने कहा कि बैंकर्स बुक्स एविडेंस एक्ट की धारा 2(4) में एक कानूनी कार्यवाही को परिभाषित किया गया है जिसमें साक्ष्य की आवश्यकता हो सकती है या जिसमें सीआरपीसी के तहत कोई जांच की परिकल्पना की गई है. अदालत ने आगे कहा, बैंकरों की पुस्तकों के साक्ष्य अधिनियम, 1891 (Bankers Books Evidence Act, 1891) की धारा 2(4) में कानूनी कार्यवाही को परिभाषित किया गया है जिसमें साक्ष्य की आवश्यकता हो सकती है या जिसमें CrPC के तहत कोई जांच या पूछताछ की परिकल्पना की गई है. इसलिए, जांच या पूछताछ के अनुसरण में CrPC की धारा 91 के तहत नोटिस को 1891 के अधिनियम की धारा 2(4) के तहत नोटिस माना जा सकता है. हाई कोर्ट ने PhonePe के इस तर्क को खारिज कर दिया कि भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम (Payment and Settlement Systems Act) बैंकरों की पुस्तकों के साक्ष्य अधिनियम पर प्रभावी है और यह जानकारी देने की अनुमति नहीं देता है.
यदि पुलिस के पास पर्याप्त संदेह है कि किसी व्यक्ति के पास जांच में मददगार जानकारी या दस्तावेज हैं, तो वह सीआरपीसी की धारा 91 के तहत उनकी मांग कर सकता है. सीआरपीसी की धारा 91 के अनुसार, यदि पुलिस के पास कई खातों के बीच संबंध दर्शाता हुआ पैसे के लेन-देन होने का संदेह है, तो जांच अधिकारी को मध्यस्थ के दस्तावेजों को तलब करने के लिए नोटिस जारी करने का अधिकार है. फिर भी, नोटिस विशिष्ट होना चाहिए और मनमाना नहीं होना चाहिए.