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पत्नी और तीन बेटियों की हत्या के दोषी मुस्लिम शख्स को राहत, जानें क्यों Supreme Court ने फांसी की सजा बहाल करने से किया इंकार

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने नाबालिग बेटे की गवाही और पीड़ितों के मृत्यु-पूर्व बयानों के आधार पर आरोपी को मौत की सजा सुनाई थी, वहीं इन बयानों को लेकर आरोपी शख्स की कोई राय नहीं ली गई.

Hanging Noose, Supreme Court

Written by Satyam Kumar |Published : April 24, 2025 2:09 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें एक व्यक्ति को उसकी पत्नी और तीन नाबालिग बेटियों को आग लगाकर हत्या करने के आरोप से बरी किया गया था. यह मामला 'ऐजाज अहमद शेख बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य' के तहत दर्ज किया गया था. यह घटना 2008 में हुई थी, जब अमीना और उसकी तीन बेटियां - नजमा, फातिमा और सलमा - को कथित तौर पर अमीना के पति हसीम शेख और उसके चचेरे भाई असलम ने आग लगा दी थी. अभियोजन पक्ष का दावा था कि हसीम और असलम ने पीड़ितों पर केरोसीन डालकर उन्हें आग के हवाले कर दिया. इस घटना में असलम भी घायल हुआ था और कुछ दिनों बाद उसकी भी मौत हो गई. 2014 में ट्रायल कोर्ट ने हसीम को दोषी ठहराया और उसे फांसी की सजा सुनाई. यह फैसला मुख्य रूप से नाबालिग बेटे की गवाही और अमीना और फातिमा के मरते समय के बयानों (Dying Declaration) पर आधारित था. हालांकि, 2015 में हाई कोर्ट ने इस सजा को पलट दिया और हसीम को बरी कर दिया.

SC ने फैसले को बरकरार रखा

जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 के तहत आरोपी के बयान को ठीक से दर्ज न करने सहित मुकदमे की कार्यवाही में कई चूक की है. शीर्ष अदालत ने कहा कि घटना भयावह है, लेकिन आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूतों के अभाव में हाई कोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता. मामले में आरोपी की सजा पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए पाया कि अभियोजन पक्ष के महत्वपूर्ण सबूत, विशेषकर अमीना और फातिमा के मरते समय के बयान, आरोपी के बयान के दौरान उसे नहीं बताये गए थे. कोर्ट ने कहा  कि अभियोजन ने इन दो पीड़ितों के मरते समय के बयानों पर बहुत अधिक निर्भर किया. चूंकि यह सबूत आरोपी के बयान के दौरान उसे नहीं बताये गए, उसे इसका स्पष्टीकरण देने का अवसर नहीं मिला. इसलिए, यह अभियोजन की यह कमी उसे नुकसान पहुंचाती है.

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सीआरपीसी की धारा 313 में पाई विफलता

सुप्रीम कोर्ट ने गौर किया कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी के नाबालिग बेटे की गवाही की क्षमता का आकलन करने में विफलता दिखाई. कोर्ट ने कहा, "गवाह को शपथ देने से पहले, ट्रायल जज ने यह सुनिश्चित करने के लिए कोई प्रारंभिक प्रश्न नहीं पूछे कि वह प्रश्नों को समझने में सक्षम है या नहीं."

कोर्ट ने आपराधिक ट्रायल में CrPC की धारा 313 के अनुपालन की बार-बार होने वाली समस्या को उजागर किया और हाई कोर्ट से आग्रह किया कि वे ऐसे दोषों की पहचान करने के लिए जल्दी से जांच करें. यदि कोई दोष पाया जाता है, तो हाई कोर्ट इसे स्वयं रिकॉर्ड करके या ट्रायल कोर्ट को इस संबंध में निर्देश देकर ठीक कर सकता है.