Advertisement

हमारे देश के कानून में क्या आत्महत्या को अपराध माना गया हैं?

संसद द्वारा 2017 में पारित किए गए अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता है और उसके खिलाफ कार्यवाही शुरू करके, उसे व्यर्थ में परेशान नहीं किया जाना चाहिए.

Written by Nizam Kantaliya |Published : January 4, 2023 11:03 AM IST

आत्महत्या के बढ़ते मामले सरकार के साथ-साथ समाज के लिए भी चिंता का विषय बना हुआ है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2021 में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़ा इस समस्या की गहराई को दर्शाता है।

इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए, सरकार द्वारा कई विधानों और नियमों को पारित किया गया है। इन नियमों के तहत, आत्महत्या से जुड़े मामलों में कानूनी कार्यवाही के साथ-साथ इन मामलों की दर को कम करने का प्रयास भी किया गया है। आइए जानते हैं, सरकार के द्वारा बनाए गए आत्महत्या से जुड़े प्रावधानों के बारे में.

आत्महत्या एक अपराध..?

भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अनुसार जो कोई आत्महत्या करने की कोशिश करता है तो वह अपराधी माना जाता है. इस मामले में, यदि दोष साबित हो जाता है तो दोषी को एक साल तक की जेल या जुर्माना या दोनों की सज़ा सुनाई जा सकती है.।

Also Read

More News

लेकिन आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से हटाने और उसे वैध घोषित करने की मांग कई दशकों से चलती आई है.

धारा को लेकर विवाद

भारतीय न्यायालयों के समक्ष, कई मामलों में IPC की धारा 309 को चुनौती दी गई है. सबसे पहले, मारुती श्रीपति डबल बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1986 के मामले में, बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा आत्महत्या करने की कोशिश को वैध घोषित किया गया था. हाई कोर्ट ने तर्क दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है और आत्महत्या को अपराध की श्रेणी में रखना इस अपराध का हनन है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी पी रथिनंम बनाम भारत संघ के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले से सहमति जताई और हाई कोर्ट द्वारा दिए गए तर्क को सही ठहराया.

लेकिन श्रीमती ज्ञान कौर बनाम भारत संघ मामले में, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दोबारा प्रश्न उठा कि "क्या आत्महत्या करना एक अपराध है या नहीं".

सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्य पीठ ने इस मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट के द्वारा दिए गए तर्क से असहमति जताई और घोषित किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए, जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है.

इससे यह तात्पर्य था कि धारा 309 संवैधानिक है और आत्महत्या करना एक अपराध है.

संसद द्वारा किए गए बदलाव

आत्महत्या को अपराध मानने के मामले में चले आ रहे विवाद को आखिरकार संसद द्वारा 2017 के मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम के जरिए समाप्त किया गया.अधिनियम की धारा 115 के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के प्रावधानों के बावजूद, कोई भी व्यक्ति जो आत्महत्या करने का प्रयास करता है, तो यह माना जाएगा कि वह व्यक्ति गंभीर मानसिक दबाव और तनाव से जूझ रहा है और इस प्रकार, वह व्यक्ति किसी भी कार्यवाही और सजा का सामना करने के लिए उत्तरदायी नहीं है.

इस अधिनियम के जरिए भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को रद्द नहीं किया गया है, लेकिन 2017 अधिनियम के लागू होने के बाद, धारा 309 को एक अपराध के रूप में इस्तेमाल करने की गुंजाइश को काफी कम कर दिया है और इस धारा का इस्तेमाल केवल असाधारण मामलों में ही किया जा सकता है.

सज़ा नहीं सहायता की ज़रूरत

संसद द्वारा 2017 में पारित किए गए अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता है और उसके खिलाफ कार्यवाही शुरू करके, उसे व्यर्थ में परेशान नहीं किया जाना चाहिए.

इस अधिनियम के तहत, यह सरकार का कर्तव्य है कि वह गंभीर तनाव से जूझ रहे और आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को हर संभव मदद उपलब्ध कराए. यह सब सहायता प्रदान करना इसलिए आवश्यक है, जिससे आत्महत्या करने के ऐसे प्रयासों की पुनरावृत्ति का जोखिम कम किया जा सके.

आत्महत्या से जुड़े कानून में बदलाव किया गया है और ये सभी परिवर्तन समाज की बेहतरी के लिए आवश्यक थे. यह इसलिए था क्योंकि एक सभ्य एवं संवेदनशील समाज का यह फर्ज है कि वह गंभीर मानसिक दबाव और तनाव से जूझ रहे व्यक्ति के हालात को समझने की कोशिश करें और उसके खिलाफ कार्यवाही करने के बजाय, उस व्यक्ति की हर संभव मदद करे.