नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) में एक जमानत याचिका दायर हुई थी; याचिकाकर्ता पर एक नाबालिग लड़की के साथ यौन शोषण करने का आरोप था। आरोपी पीड़िता के घर के पास रहता था; एक दिन उसने पीड़िता को झूठे बहाने से अपने घर बुलाया और फिर उससे कहा कि वो उसे तब तक नहीं जाने देगा जब तक वो बालिग नहीं हो जाती है। उस समय पीड़िता की उम्र 16 साल थी।
दो महीने बाद पीड़िता को वापस घर लेकर आया गया और चिकित्सा परीक्षण से यह पता चला कि वो गर्भवती है; पीड़िता ने डॉक्टरों को बताया कि आरोपी ने उसके साथ जबरदस्ती शारीरिक सबंध बनाए थे। पीड़िता का कई बार बलात्कार किया गया और बाद में पीड़िता तो कई बार अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन घर पर कम्प्लीट अबॉर्शन की वजह से उसके भ्रूण का सैंपल प्रिजर्व नहीं किया जा सका।
दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायाधीश स्वर्ण कांता शर्मा (Justice Swarna Kanta Sharma) ने सुनवाई के बाद यह कहकर जमानत याचिका को खारिज कर दिया कि उनके पाद ऐसे कोई कारण नहीं हैं जिनके आधार पर वो जमानत दे सकें। साथ ही, अदालत ने कुछ दिशानिर्देश भी जारी किये जो यह स्पष्ट करते हैं कि यौन शोषण की गर्भवती पीड़िताओं के साथ पुलिस और डॉक्टरों को किस तरह डील करना है.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, दिल्ली सरकार और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है कि दिल्ली के सभी अस्पतालों में यौन उत्पीड़न के पीड़ितों की जांच के लिए मौजूदा दिशानिर्देश/मानक संचालन प्रक्रिया प्रसारित की जाएं।
उपर्युक्त मंत्रालयों को यह भी निर्देशित किया गया है कि वो इस इस जजमेंट में दिए गए एडिशनल दिशानिर्देशों को भी मौजूद एसओपी में जोड़ लें; यानी अगर एक पीड़िता गर्भवती है और उनके अबॉर्शन और भ्रूण संरक्षण का आदेश दिया गया है, तो जांच अधिकारी इस आदेश की सूचना संबंधित अस्पताल के अधीक्षक को देगा। अस्पताल के अधीक्षक इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि जिस डॉक्टर को अबॉर्शन की जिम्मेदारी दी गई है, वो इस आदेश का पालन अत्यधिक सावधानी से करेंगे।
कोर्ट का यह भी आदेश है कि यौन शोषण के मामले में प्राधिकरण द्वारा अगर अबॉर्शन हेतु निर्देश जारी किया जाता है तो इसके 24 घंटों के भीतर जांच अधिकारी को पीड़िता को संबंधित अस्पताल के अधीक्षक के समक्ष पेढ करना होगा। इस आदेश का पालन तब भी होगा जब गर्भावस्था 20 हफ्तों से भी कम की होगी।
यह निर्देशित किया गया है कि संबंधित चिकित्सक सुनिश्चित करेंगे कि भ्रूण को संरक्षित किया गया है और पीड़िता को जल्दबाजी में डिस्चार्ज नहीं किया जा रहा है; जिससे पीड़िता की जान को खतरा हो सकता है और एक यौन शोषण के मामले में साक्ष्य खो सकते हैं।
अगर यौन शोषण की पीड़िता को अबॉर्शन किये बिना अस्पताल से छुट्टी दी जाती है तो संबंधित डॉक्टर यह भी लिखित में स्पष्ट करेंगे कि इसके पीछे कारण क्या हैं, जिससे भ्रूण जैसे महत्वपूर्ण साक्ष्य न खोएं।
यह डॉक्टर का कर्तव्य, उनकी जिम्मेदारी होगी कि वो विस्तार से उस ट्रीटमेंट का उल्लेख करें जो पीड़िता को दिया जा रहा हो, इसमें पीड़िता के अबॉर्शन और उनको दी जाने वाली दवाइयों के बारे में भी लिखना है।
अदालत ने कहा कि उन्हें यह पता है कि ऐसे मामलों में अस्पताल से मिलने वाले मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट (MLC) हस्तलिखित होने चाहिए लेकिन कई बार हैंडराइटिंग की वजह से अदालत उसे ठीक से पढ़ नहीं पाती। इसलिए, हस्तलिखित एमएलसी के साथ उसकी एक टाइप्ड कॉपी अटैच करना जरूरी है और ये टाइप्ड कॉपी जांच अधिकारी के पास एक हफ्ते के अंदर आ जानी चाहिए।
दिल्ली उच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों में यह स्पष्ट किया गया है कि एमएलसी की टाइप की हुई जिस कॉपी की बात हो रही है, उसे जांच अधिकारी को इलेक्ट्रॉनिक मोड से भी भेजा जा सकता है जिससे जांच अधिकारी और संबंधित अस्पताल, दोनों का समय बचे।