सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 30 साल पुराने मामले में एक दोषी को राहत दी है. कोर्ट ने उसके खिलाफ मामले को रद्द करते हुए उसे दोष से मुक्त कर दिया है. कोर्ट ने 30 साल की अवधि पर कानूनी प्रक्रिया (Judicial Proceedings) के प्रति निराशा व्यक्त की. कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि ये अपराधिक न्यायिक प्रणाली (Criminal Judicial Proceedings) स्वयं ही आरोपी के लिए सजा बन जाती है. मामले में पत्नी के परिजनों ने पति (Husband) के ऊपर आत्महत्या के लिए उकसाने (Abetment to Suicide) का मामला दर्ज कराया था.
सुप्रीम कोर्ट ने मामले में मौजूद जांच में पाया कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान, इस बात को नोट करते हुए कहा कि पति ने पत्नी को आत्महत्या करने के लिए उकसाया था, इसे केवल एक धारणा की तरह पेश किया गया. वहीं, धारा 113ए के तहत पति के आरोपी साबित करने की बात पर कहा कि धारा-113ए विवेकाधीन है. सुप्रीम कोर्ट ने पति के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं पाया.
कोर्ट ने कहा,
“आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप के मामले में अदालत को आत्महत्या के लिए उकसाने के कृत्य के ठोस सबूत की तलाश करनी चाहिए.सबूतों की जांच करना कठिन काम है और जब आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में सबूतों की सराहना करने की बात आती है तो यह और भी कठिन काम है.अदालत को रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों की जांच करते हुए आत्महत्या के लिए उकसाने के विषय को नियंत्रित करने वाले कानून के सही सिद्धांतों को लागू करने के दौरान बहुत सावधान और सतर्क रहना चाहिए."
साल, 1993 में अपीलकर्ता (दोषी) की पत्नी ने आत्महत्या की. पत्नी ने आत्महत्या शादी के सात साल के अंदर ही कर ली है. वहीं, पत्नी के परिजनों ने आरोपी (पति) को दोषी बताते एफआईआर दर्ज कराई. परिजनों के बयान पर मामले को धारा-306 का अपराध पाया गया.
साल 1998: ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी माना.
साल 2008: हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही पाया.
दोषी ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपराधिक अपील दायर की. अपील में तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट के फैसले में कमी है. ट्रायल कोर्ट ने इस बात पर ध्यान ही नही दिया कि मृतिका के पति (अपीलकर्ता) ने उसके साथ शारीरिक अथवा मानसिक रूप से उत्पीड़ित किया हो.
सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील पर सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पति पर धारा-306 के तहत अपराध करने की किसी मंशा (इरादे) का अभाव है. सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति को राहत देते हुए ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है.