सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2019 के उस फैसले की आलोचना की जिसमें उसने छह साल की बच्ची की कस्टडी उसके जैविक पिता को देने का आदेश दिया था. जस्टिस सूर्यकांत और उज्ज्वल भुइयां ने मामले के संचालन पर असंतोष व्यक्त किया और मां के अधिकारों पर जोर दिया. उन्होंने बुलंदशहर के जिला न्यायाधीश को जांच करने और यह निर्धारित करने का निर्देश दिया कि बच्ची के सर्वोत्तम हित और कल्याण में क्या है.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने मामले के रिकॉर्ड को देखने के बाद नाराजगी व्यक्त की और कहा कि अगर हम कुछ कठोर बात कहेंगे, तो बार के सदस्य कहेंगे कि हम अपने उच्च न्यायालयों का मनोबल गिरा रहे हैं. देखिए, उच्च न्यायालय ने न्याय का कैसा मजाक उड़ाया है.
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा,
‘‘हम जितना कम बोलेंगे उतना ही बेहतर होगा, क्योंकि इससे न्यायिक प्रणाली की स्थिति का पता चलता है. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका से निपटने का यह सबसे अनुचित तरीका है.’’
पीठ ने कहा,
‘‘मां को उसके घर से निकाल दिया गया और पिता ने बच्चे को अपने पास रख लिया. जब महिला ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की, तो उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने उसके पक्ष में सही फैसला दिया, लेकिन बच्चे के पिता द्वारा दायर अपील पर खंडपीठ ने 2019 में आदेश पर रोक लगा दी."
अदालत ने कहा कि कि अब पांच साल बाद, उच्च न्यायालय ने फैसला किया है कि बच्चे की कस्टडी मां को देने का निर्देश देने वाले एकल न्यायाधीश के आदेश पर रोक लगाने वाला 2019 का उसका आदेश गलत था. बता दें कि साल 2019 में पिता की अपील पर हाईकोर्ट की खंडपीठ ने बच्चे की कस्टडी पिता को सौंप दी थी.
पीठ ने बुलंदशहर के जिला न्यायाधीश को निर्देश दिया कि वह जांच करके इसकी पुष्टि करें और उच्चतम न्यायालय को बताएं कि बच्चे के सर्वोत्तम हित और कल्याण के लिए क्या सही होगा.