Advertisement

आलोचना जिम्मेदारी के साथ होनी चाहिए... जस्टिस अभय ओका ने अदालती फैसलों के रचनात्मक आलोचना का किया समर्थन

गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक व्याख्यान के दौरान न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने रचनात्मक और जिम्मेदार आलोचना की वकालत करते हुए अदालती फैसलों की आलोचना करने के अधिकार पर जोर दिया.

सुप्रीम कोर्ट जस्टिस अभय एस ओक

Written by Satyam Kumar |Published : February 17, 2025 11:04 AM IST

हाल ही में जस्टिस अभय एस. ओका (Justice Abhay S Oka) ने अदालत के फैसले पर सवाल खड़े करने के मुद्दे पर अहम टिप्पणी की है. गुजरात विधि विश्वविद्यालय में एक संबोधन में जस्टिस अभय एस. ओका ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को अदालती फैसलों की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन यह रचनात्मक और जिम्मेदारी की भावना के साथ किया जाना चाहिए. जस्टिस अभय एस ओका ने सोशल मीडिया पर न्यायपालिका के बारे में आलोचनात्मक सामग्री से निपटने में संयम बरतने का आह्वान किया, ताकि 'तथाकथित' विशेषज्ञों द्वारा जल्दीबाजी में बहस न हो. जस्टिस ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायाधीश और बार के सदस्य सुनिश्चित करें कि न्यायपालिका स्वतंत्र बनी रहे, और नागरिकों को न्यायपालिका के साथ खड़ा होना चाहिए जब उसकी स्वतंत्रता पर अतिक्रमण का प्रयास किया जाए.

अदालत के फैसले की रचनात्मक आलोचना

जस्टिस अभय एस ओका ने कहा  कि एक न्यायाधीश के तौर पर मैं हमेशा मानता हूं कि हम आम आदमी के प्रति जवाबदेह हैं. जब भी मैंने छात्रों या वकीलों को संबोधित किया है, मैंने कहा है कि भारत के हर नागरिक को अदालतों के फैसलों की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन यह आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए. जस्टिस ओका ने ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए समकालीन चुनौतियां’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा,

"यदि आप किसी निर्णय की आलोचना करना चाहते हैं, तो आपको यह कहकर आलोचना करनी चाहिए कि ये वे आधार हैं जिन पर न्यायाधीश गलत हो गए, या न्यायाधीश द्वारा दर्ज किया गया. यह निष्कर्ष सुस्थापित कानून के विपरीत है. यह एक सोची-समझी आलोचना होनी चाहिए."

इस दौरान जस्टिस ओका ने कहा कि ‘तथाकथित’ विशेषज्ञों को न्यायालय के फैसले के कुछ घंटों बाद ही इस बात पर बहस नहीं करने लगना चाहिए कि फैसला सही है या गलत. उन्होंने कहा कि यदि आप निर्णय की आलोचना करना चाहते हैं, तो आपको ऐसा करने का अधिकार है, लेकिन कृपया निर्णय की सावधानीपूर्वक जांच करें और फिर बताएं कि निर्णय गलत क्यों हुआ. जस्टिस ओका ने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह की आलोचना न्यायपालिका की आलोचना करने के समान है, क्योंकि न्यायाधीश आत्मसंयम का पालन करते हैं. उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने के किसी भी प्रयास का एकमात्र उत्तर एक स्वतंत्र बार है. जस्टिस ओका के अनुसार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का मूल ढांचा है, जिसकी पूरी लगन से रक्षा की जानी चाहिए.

Also Read

More News

लॉ यूनिवर्सिटी छात्रों को बेहतर बनाएं

जस्टिस ओका ने कहा कि यह दिखाने के लिए ऐतिहासिक उदाहरण हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता कैसे प्रभावित हो सकती है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 1973 के केशवानंद भारती फैसले का हवाला दिया, जिसने मूल संरचना सिद्धांत को स्थापित किया. इस फैसले में कहा गया है कि संसद संविधान की कुछ आधारभूत विशेषताओं को नहीं बदल सकती है. उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा निर्णय है जिसने भारत में न्यायपालिका और लोकतंत्र की स्वतंत्रता को बचाया है. विधि छात्रों को संबोधित करते हुए जस्टिस ओका ने कहा कि राष्ट्रीय विधि विद्यालय का उद्देश्य अच्छे सरकारी वकील, अभियोजक, न्यायिक अधिकारी, न्यायाधीश तथा गुणवत्तापूर्ण विधि शिक्षक तैयार करना होना चाहिए.

(खबर पीटीआई इनपुट पर आधारित है)