दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अधिवक्ता को दोषी ठहराया, जो नशे की हालत में न्यायालय में दाखिल हुआ था और कड़कड़डूमा न्यायालय में मजिस्ट्रेट के खिलाफ अभद्र और गंदी भाषा का प्रयोग किया था और साथ ही उसे धमकी भी दी थी.
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह और अमित शर्मा की खंडपीठ ने अधिवक्ता को न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी पाया. अदालत ने वकील के रवैये से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह न्यायालय की अवमानना है.
22 अगस्त को पारित फैसले में खंडपीठ ने कहा,
"न्यायिक अधिकारी के रूप में प्रतिवादी-अवमाननाकर्ता द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा से इस बात में कोई संदेह है कि यह आपराधिक अवमानना है. अवमाननाकर्ता द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा ने अदालत को अपमानित किया है और इस तरह का आचरण न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप भी करता है."
खंडपीठ ने आगे कहा,
"बोले गए शब्द गंदे और अपमानजनक हैं. अदालत की अध्यक्षता करने वाली न्यायिक अधिकारी एक महिला न्यायिक अधिकारी थीं और अवमाननाकर्ता ने उक्त न्यायिक अधिकारी को जिस तरह से संबोधित किया वह पूरी तरह से अस्वीकार्य है."
खंडपीठ ने माना कि नशे की हालत में न्यायालय के समक्ष उपस्थित होना भी अक्षम्य है. यह न्यायालय की अवमानना है. इस प्रकार, इस न्यायालय को यह मानने में कोई संदेह नहीं है कि प्रतिवादी आपराधिक अवमानना का दोषी है.
ANI की रिपोर्ट के मुताबिक, हाईकोर्ट ने पाया कि दोषी पहले ही संबंधित एफआईआर में पांच महीने की हिरासत में रह चुका है. उच्च न्यायालय ने कहा,
"अदालत प्रतिवादी को आपराधिक अवमानना के लिए दंडित करने के लिए इच्छुक है. हालांकि, इन आरोपों और घटनाओं के आधार पर, चूंकि प्रतिवादी ने पहले ही 5 महीने से अधिक की सजा काट ली है, इसलिए प्रतिवादी पर आगे की सजा नहीं लगाई जा सकती. प्रतिवादी द्वारा पहले से ही काटी गई अवधि को वर्तमान आपराधिक अवमानना के लिए सजा माना जाता है."
30 अक्टूबर 2015 को मजिस्ट्रेट ने एक आदेश पारित किया जिसमें दर्ज किया गया कि वाहन का आरोपी मालिक वकील के साथ अदालत में पेश हुआ था, जो अब अवमाननाकर्ता है. उन्हें बताया गया कि मामले को स्थगित कर दिया गया है और मामले के लिए एक तारीख दी गई है. हालांकि, इसके तुरंत बाद, वकील ने अदालत में चिल्लाना शुरू कर दिया और अपमानजनक और गंदी भाषा का इस्तेमाल किया. अधिवक्ता द्वारा इस्तेमाल की गई उक्त भाषा पर विचार करने के बाद, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा 31 अक्टूबर 2015 को उच्च न्यायालय को एक पत्र भेजा गया था. इसके बाद, उच्च न्यायालय ने अधिवक्ता के खिलाफ स्वतः संज्ञान अवमानना की सुनवाई शुरू की थी. इस मामले में अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर को एमिकस क्यूरे नियुक्त किया गया था.