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क्यों किया गया कानूनी प्रक्रिया में जमानत का प्रावधान, क्या होते है जमानती और गैर-जमानती अपराध ?

जमानती और गैर-जमानती अपराधों में मूल अंतर यही है कि जमानती अपराध में जमानत, आरोपी का अधिकार है और गैर-जमानती अपराध में जमानत अदालत के निर्णय पर निर्भर करती है.

Written by Nizam Kantaliya |Published : December 21, 2022 8:35 AM IST

नई दिल्ली: किसी देश या समूह में जहां पर एक से अधिक लोग रहते है आपस में विवाद होना आम बात है लेकिन ये विवाद जब किसी एक को नुकसान पहुंचाए तो अपराध बन जाता है. हमारे देश के कानून के अनुसार कोई भी कार्य जो दूसरों के अधिकारों के उल्लंघन का कारण बने या बड़े पैमाने पर दूसरों को या समाज को प्रभावित करे, उसे अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है.

क्या कहती हैं CRPC

अपराध की स्पष्ट व्याख्या CRPC की धारा 2 एन में की गयी है जिसके अनुसार "अपराध" का अर्थ है कोई भी कार्य जो उस समय के किसी भी लागू कानून के तहत दंडनीय हो और कोई ऐसा कार्य जिसके संबंध में मवेशी-अपराध अधिनियम 1871 की धारा 20 के तहत शिकायत की जा सकती है भी शामिल है.

CRPC धारा 39 (2) के  देश के बाहर किया गया वह कार्य भी एक अपराध है अगर वह हमारे देश में किया होता तो वह अपराध होता.

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अंतिम समय तक सुधार की अपेक्षा

हमारे देश के कानून निर्माताओं ने एक अपराधी को समाज से पूर्णतया तिरस्कृत नहीं किया. बल्कि ये उम्मीद रखी कि प्रत्येक अपराधी वापस समाज की मुख्यधारा में शामिल होगा, इसके लिए उसे सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए. और एक निर्दोष को अंतिम समय तक खुद के निर्दोष होने का मौका दिया जाना चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि वह समाज से जुड़ा रहें. इसी के चलते अपराध की प्रकृति का वर्गीकरण भी किया गया.

अपराध को लेकर हमारे देश में दो धारणा है एक अपराध वह है जो बेहद सावधानी से योजना बनाकर और पूर्व नियोजित तरीके से किया जाता है. जो कि एक अपराधी अपनी आपराधिक प्रवृत्ति के कारण अपराध को अंजाम देते हैं. दूसरे इस तरह के भी अपराध होते है जहां एक अपराधी कई मामलों में ये अपराध परिस्थिती, बल या दबाव में करता है या क्रोध, बचाव या भावावेश में अपराध करता हैं.

अपराध की प्रवृत्ति के अनुसार ही अपराध को जमानती और गैर जमानती बनाया गया है.

जमानती अपराध

जमानती अपराध वे अपराध होते है जो प्रकृति मुख्यतया छोटे अपराध होते है और जिनके लिए कानून में जमानत का प्रावधान किया गया है. इस तरह के अपराधों में कम गंभीर जैसे मारपीट, धमकी, धोखाधड़ी, लापरवाही से मौत, लापरवाही से गाड़ी चलाना, जैसे अपराधों को शामिल रखा गया है, इन मामलों में स्थानीय स्तर पर या निचली अदालतें भी आसानी से जमानत दे देती है. आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) की धारा 2(a) के अनुसार इस तरह के अपराध के मामलों में एक व्यक्ति अधिकार के रूप में जमानत की मांग कर सकता है.

सजा के रूप में वे सब अपराध जिनमें तीन साल या उससे कम हो तो वह सब अपराध जमानती होते हैं. लेकिन कई मामलों में इस प्रावधान के अपवाद भी है.

जमानत एक अधिकार

CRPC की धारा 436 के अनुसार जमानती अपराधों में, एक अपराधी जमानत को अधिकार के रूप में दावा करते हुए पुलिस अधिकारी या अदालत के समक्ष जमानत के लिए आवेदन कर सकता है. पुलिस अधिकारी या अदालत द्वारा इसे स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसका प्रावधान कानून में किया गया हैं.

रसिकलाल बनाम किशोर खानचंद वाधवानी (2009) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि धारा 436 के तहत किया गया, जमानत का दावा एक पूर्ण और अपराजेय अधिकार है यानि जमानत देना अनिवार्य है.

गैर-जमानती अपराध

आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) की धारा 2(a) के अनुसार के अनुसार गैर जमानती अपराध वे होते है जिन मामलों में एक व्यक्ति अधिकार के रूप में जमानत की मांग नहीं कर सकता. डकैती, हत्या, लूट, अपहरण, दुष्कर्म, जैसे अपराध अत्यंत गंभीर और संगीन किस्म के अपराध गैर-जमानती अपराध की श्रेणी में आते है और इन मामलों में अदालत अपने विवेक के अनुसार जमानत तय करती है.

इस तरह के संगीन मामलों में मुख्यतया वे सभी अपराध शामिल होते है जिनमें सजा का प्रावधान तीन साल से लेकर आजीवन उम्रकैद और फांसी तक की सजा का प्रावधान होता है.

जमानत एक अधिकार नहीं

गैर-जमानती अपराधों में आरोपी जमानत के लिए ना तो दबाव बना सकता है और ना ही अधिकार के रूप में दावा कर सकता है. ऐसे मामलों में जिला न्यायपालिका संभवतया अपराध की पृष्ठभूमि, स्थिति और अपराधी के इतिहास को देखकर निर्णय लेती है. अधिकांश मामलों में जिला न्यायपालिका ऐसे गंभीर अपराधों के लिए जमानत के आवेदन को उच्च न्यायपालिका को रेफर कर देती है.

CRPC की धारा 437 के अनुसार ऐसे मामलों में अदालत के पास ये अधिकार होता है कि वह अपराधी को जमानत देना चाहता है या नहीं.

मनसब अली बनाम इरसान (2003) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार अदालतों का कर्तव्य है कि वह गैर-जमानती मामलों में सुनवाई करते हुए, अदालत को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए स्वतंत्रता के मूल्यवान अधिकार और समाज के हित में संतुलन बनाकर रखना होगा.