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'अगर रोहिंग्या विदेशी हैं तो उन्हें वापस भेजे', Supreme Court ने केन्द्र सरकार को कहा

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत ने स्पष्ट किया कि यूएनएचसीआर द्वारा जारी पहचान पत्र रोहिंग्या शरणार्थियों को कानूनी संरक्षण नहीं प्रदान करते है.

रोहिंग्या, सुप्रीम कोर्ट

Written by Satyam Kumar |Published : May 9, 2025 12:20 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को कहा कि यदि देश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी भारतीय कानून के तहत विदेशी पाए गए तो उन्हें निर्वासित किया जाएगा. जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने शीर्ष अदालत के एक आदेश का जिक्र करते हुए कि शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) द्वारा जारी पहचान पत्र कानून के तहत उनके लिए कोई मददगार नहीं हो सकते हैं.

जस्टिस दत्ता ने राहत का अनुरोध कर रहे विभिन्न रोहिंग्या याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंजाल्विस और अधिवक्ता प्रशांत भूषण से कहा कि यदि वे विदेशी अधिनियम के अनुसार विदेशी हैं, तो उन्हें निर्वासित किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत को बताया गया कि महिलाओं और बच्चों सहित यूएनएचसीआर कार्ड रखने वाले कुछ शरणार्थियों को पुलिस अधिकारियों ने कल देर रात गिरफ्तार कर लिया और बृहस्पतिवार को सुनवाई होने के बावजूद निर्वासित कर दिया.

जस्टिस दत्ता ने कहा,

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‘‘यदि वे (रोहिंग्या) सभी विदेशी हैं और यदि वे विदेशी अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, तो उनके साथ विदेशी अधिनियम के अनुसार ही व्यवहार किया जाना चाहिए.’’

अदालत ने मामले की अंतिम सुनवाई करने का फैसला किया और सुनवाई 31 जुलाई के लिए स्थगित कर दी.

क्या है मामला?

सुप्रीम कोर्ट का ये निर्देश बंग्लादेशी घुसपैठियों की डिटेशन से जुड़ी जनहित हित की याचिका (PIL) पर आया, जिसे कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI) के माजा दरूवाला और अन्य द्वारा दायर किया गया है. यह मुद्दा पहली बार 2011 में सामने आया जब CHRI ने कलकत्ता हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा, जिसमें बताया गया कि बांग्लादेशी नागरिक, जो विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत दोषी ठहराए गए थे, उन्हें उनकी सजा पूरी करने के बाद भी वापस नहीं भेजा जा रहा है. इसके बजाय, उन्हें प्रशासनिक देरी के कारण सुधार गृहों में अनिश्चितकाल तक रखा गया है. कुछ समय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अपने पास ट्रांसफर कर लिया.

अब तक की सुनवाई में अदालत ने 2009 में गृह मंत्रालय द्वारा जारी एक सर्कुलर का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेशी नागरिकों की नागरिकता की जांच 30 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए. अदालत ने सरकार से पूछा कि इस प्रावधान का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है.