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राष्ट्रपति और गवर्नर को विधेयक पर मंजूरी देने के लिए समय सीमा में बाध्य करना सही? SC ने मामले में फैसला रखा रिजर्व

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले के बारे में विचार करना था, जिसमें राष्ट्रपति रेंफरेंस में पूछा गया था कि क्या एक संवैधानिक अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकती है.

सुप्रीम कोर्ट

Written by Satyam Kumar |Published : September 11, 2025 5:55 PM IST

आज (गुरूवार को) सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को विधेयक पर फैसला लेने के लिए समय सीमा में बाध्य करने के मामले में 10 दिन तक दलीलें सुनने के बाद गुरूवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले के बारे में विचार करना था, जिसमें राष्ट्रपति रेंफरेंस में पूछा गया था कि क्या एक संवैधानिक अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकती है. इस मामले में 19 अगस्त को सुनवाई शुरू करने वाले चीफ जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रमनाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया.

देश के सर्वोच्च विधि अधिकारी, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी की दलीलें पूरी होने के बाद मामले को पीठ द्वारा फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया गया. केंद्र की ओर से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संदर्भ का विरोध करने वाले विपक्ष शासित तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश की दलीलों का विरोध करते हुए अपनी दलीलें पूरी कीं. केरल और तमिलनाडु सरकारों की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट के के वेणुगोपाल तथा कपिल सिब्बल ने राष्ट्रपति के रेफरेंस का विरोध करते हुए कहा था कि राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए मुद्दे आठ अप्रैल के फैसले सहित शीर्ष अदालत के कई फैसलों में शामिल हैं.

मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा निर्धारित की जा सकती है. राष्ट्रपति का यह संदर्भ तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के आठ अप्रैल के फैसले के बाद आया था.

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पांच पृष्ठों के संदर्भ में राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में अनुच्छेद 200 तथा 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय जाननी चाही. यह फैसला तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि और राज्य सरकार के बीच राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर मंजूरी रोकने के मुद्दे पर जारी लंबी लड़ाई के बाद सुनाया गया. शीर्ष अदालत ने संदर्भ पर सुनवाई करते हुए पूछा कि अगर राष्ट्रपति स्वयं संदर्भ के माध्यम से यह राय मांगती हैं कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राज्यपालों और उन पर निश्चित समयसीमा लागू की जा सकती है, तो इसमें क्या गलत है?

पीठ ने संदर्भ पर महत्वपूर्ण सुनवाई शुरू करते हुए पूछा, ‘‘जब राष्ट्रपति स्वयं संदर्भ मांग रही हैं तो समस्या क्या है? क्या आप वास्तव में इसका विरोध करने के लिए गंभीर हैं?’’

दस दिन की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल के अलावा वेणुगोपाल, सिब्बल, अभिषेक सिंघवी, अरविंद दातार, गोपाल सुब्रमण्यन, मनिंदर सिंह, एन के कौल, आनंद शर्मा, पी विल्सन और गोपाल शंकरनारायणन सहित वरिष्ठ वकीलों की दलीलें सुनीं. इन दलीलों में मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों की शक्तियों पर चर्चा की गई.

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, गोवा और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्यों ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपालों और राष्ट्रपति की कार्यात्मक स्वायत्तता का बचाव किया. अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों को नियंत्रित करता है, जिसके तहत उन्हें विधेयक पर स्वीकृति देने, स्वीकृति रोकने, विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस करने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करने की अनुमति दी जाती है.