सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें दावा किया गया कि भारत सरकार जबरदस्ती रोहिंग्या को जबरदस्ती वापस भेज रही है. दावे के अनुसार केन्द्र अब तक 43 रोहिंग्याओं को इंटरनेशनल बॉर्डर स्थित समुद्र के रास्ते वापस भेजने का प्रयास कर रही हैं. इस याचिका में भेजे जा रहे रोहिंग्या के स्वास्थ्य के बारे में भी विस्तार से बताया गया है. इसमें दावा किया गया कि कुछ रोहिंग्या बीमार, तो कुछ कैंसर पीड़ित है. ये याचिका दिल्ली के रहनेवाले दो रोंहिग्या समूह ने दायर किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि दिल्ली पुलिस उनके लोगों को बायोमैट्रिक डेटा लेने के लिए स्टेशन ले गई, जहां से उन्हें इंद्रलोक डिटेंशन सेंटर में भेजा गया. फिर उन्हें भारतीय नौसेना में बैठाकर इंटरनेशनल समुद्री बॉर्डर में भेजा गया.
सुप्रीम कोर्ट लगातार रोहिंग्या को कानूनी तरीके से वापस भेजने की व लिविंग स्टैंडर्ड की स्थिति की प्रक्रिया पर सुनवाई कर रही है. इस नई याचिका को भी सुनवाई कर रही जस्टिस एन कोटिस्वर सिंह, जस्टिस दीपंकर दत्ता और जस्टिस सूर्य कांत की खंडपीठ ने 31 जुलाई को सूचीबद्ध किया है. वहीं, पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि देश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी भारतीय कानून के तहत विदेशी पाए गए तो उन्हें निर्वासित किया जाएगा. जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने शीर्ष अदालत के एक आदेश का जिक्र करते हुए कि शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) द्वारा जारी पहचान पत्र कानून के तहत उनके लिए कोई मददगार नहीं हो सकते हैं.
जस्टिस दत्ता ने राहत का अनुरोध कर रहे विभिन्न रोहिंग्या याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंजाल्विस और अधिवक्ता प्रशांत भूषण से कहा कि यदि वे विदेशी अधिनियम के अनुसार विदेशी हैं, तो उन्हें निर्वासित किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत को बताया गया कि महिलाओं और बच्चों सहित यूएनएचसीआर कार्ड रखने वाले कुछ शरणार्थियों को पुलिस अधिकारियों ने कल देर रात गिरफ्तार कर लिया और बृहस्पतिवार को सुनवाई होने के बावजूद निर्वासित कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट का ये निर्देश बंग्लादेशी घुसपैठियों की डिटेशन से जुड़ी जनहित हित की याचिका (PIL) पर आया, जिसे कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (CHRI) के माजा दरूवाला और अन्य द्वारा दायर किया गया है. यह मुद्दा पहली बार 2011 में सामने आया जब CHRI ने कलकत्ता हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा, जिसमें बताया गया कि बांग्लादेशी नागरिक, जो विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत दोषी ठहराए गए थे, उन्हें उनकी सजा पूरी करने के बाद भी वापस नहीं भेजा जा रहा है. इसके बजाय, उन्हें प्रशासनिक देरी के कारण सुधार गृहों में अनिश्चितकाल तक रखा गया है. कुछ समय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अपने पास ट्रांसफर कर लिया.
अब तक की सुनवाई में अदालत ने 2009 में गृह मंत्रालय द्वारा जारी एक सर्कुलर का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेशी नागरिकों की नागरिकता की जांच 30 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए. अदालत ने सरकार से पूछा कि इस प्रावधान का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है