नई दिल्ली: भारत की पूरी न्यायिक प्रणाली साक्ष्य पर आधारित है. किसी भी तरह के न्यायिक कार्यवाही में आम तौर पर दो प्रकार के सबूत/साक्ष्य होते हैं, यानी गवाह और दस्तावेज़. एक गवाह किसी ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जो न्यायिक कार्यवाही में, पक्षों के अधिकारों और जिम्मेदारियों को निर्धारित करने में अदालत की मदद करता है और सबूत देता है.
भारतीय न्यायालयों ने समय-समय पर न्यायिक कार्यवाही में गवाहों के महत्व को स्वीकार किया है. गुजरात राज्य बनाम अनिरुद्ध सिंह (1997) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया था कि प्रत्येक गवाह जो किसी अपराध के घटित होने के बारे में जानता है, उसका नैतिक दायित्व है कि वह गवाही देकर और मामले के लिए मूल्यवान सूचना देकर जांच अधिकारी की मदद करे.
हालांकि, किसी भी गवाह द्वारा प्रदान किए गए साक्ष्य की ताकत और विश्वसनीयता (Reliability) का निर्धारण करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक उस गवाह की क्षमता (Competence of Witness) है. भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act), 1872 की धारा 118, "कौन गवाही दे सकता है, यानी गवाह की योग्यता" को बड़े दिलचस्प रूप से परिभाषित करता है. यह धारा, किसी भी गवाह की विश्वसनीयता के लिए एक सामान्य नियम निर्धारित करती है.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष गवाही देने के लिए सक्षम है जब तक कि कोई न्यायालय की राय में
• पूछे गए प्रश्न को समझने में असमर्थ है; या
• व्यक्ति उन प्रश्नों का तर्कसंगत उत्तर देने में असमर्थ है क्योंकि वह व्यक्ति
(i)कम उम्र का है यानी बच्चा है
(ii)अत्यधिक वृद्धावस्था से जूझ रहा है
(iii)दिमाग़ या शरीर के किसी रोग से जूझ रहा है
(iv)कोई अन्य कारण की वजह से
इस धारा के साथ दी गई स्पष्टीकरण यह बताती है कि एक दिमागी रूप से बीमार (Lunatic) व्यक्ति भी गवाही देने के लिए सक्षम है यदि वह उससे पूछे गए प्रश्नों को समझ सकता है और उन प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर भी दे सकता है. वहीं, कुछ परिस्थितियां ऐसी भी होती हैं, जिसमें कोई व्यक्ति गवाही देने के लिए सक्षम तो होता है, लेकिन उसे गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है. इन मामलों में, व्यक्ति के पास साक्ष्य देने से इनकार करने का विशेषाधिकार होता है.
उदाहरण के लिए, साक्ष्य अधिनियम की धारा 124 के तहत, किसी भी सरकारी अधिकारी को सार्वजनिक हित में बाधा डालने वाली किसी भी आधिकारिक जानकारी का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.
जब हम अधिनियम की धारा 118 को देखते हैं, तो यह स्पष्ट तौर पर समझ आता है कि बाल गवाह की गवाही (Competency of Child Witnesses) को केवल उसकी उम्र के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है. एक बच्चे को न्यायिक कार्यवाही में गवाही देने की अनुमति दी जा सकती है यदि अदालत इस बात से संतुष्ट है कि बच्चा उससे पूछे गए प्रश्नों को समझने में सक्षम है और साथ ही तर्कसंगत उत्तर भी दे सकता है.
किसी बच्चे को गवाही देने की अनुमति देना या ना देना पूरी तरह से अदालत के विवेक पर है. सुरेश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1981) के ऐतिहासिक मामले में, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 5 साल का बच्चा भी साक्ष्य देने के लिए सक्षम है यदि वह न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों को समझता है और तर्कसंगत उत्तर दे सकता है.
हालांकि, प्रत्येक मामले में यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह बाल गवाह द्वारा दिए गए साक्ष्य की सावधानी से जांच करें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गवाही के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है और गवाही पर्याप्त रूप से विश्वसनीय है. ऐसे सभी मामलों में, अदालत को अनिवार्य रूप से राय दर्ज करनी होगी कि गवाही देते समय बच्चे को यह पता था कि वह साक्ष्य देते समय सत्य बोलने के लिए बाध्य है.
अत्यधिक वृद्धावस्था के लोगों में आम तौर पर स्मृति और स्मरण (memory and recalling) की कम क्षमता होती है. न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य देने के लिए ऐसे लोगों की क्षमता पूरी तरह से अदालत के विवेक पर है, जो यह निर्धारित करेगी कि क्या ऐसा व्यक्ति धारा 118 द्वारा निर्धारित योग्यता के मानदंडों को पूरा करता है या नहीं, यानी प्रश्नों को समझना और तर्कसंगत जवाब देने में सक्षम है.
बाल गवाहों और अत्यधिक वृद्ध लोगों की गवाही देने की क्षमता का पता लगाने के लिए, अदालत वोयर डायर टेस्ट (Voir Dire Test) का प्रयोग करती है. इस टेस्ट में, अदालत बच्चे से कुछ सवाल पूछती है जो विचाराधीन मामले से पूरी तरह से असंबंधित हैं.
बच्चों और वृद्ध लोगों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर, अदालत यह निर्धारित करती है कि क्या वह मामले के संबंध में साक्ष्य देने के लिए पर्याप्त रूप से समझदार और सक्षम है.
धारा 118 के तहत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि एक दिमागी रूप से बीमार व्यक्ति (Competency of Lunatic Witnesses) भी गवाह बनने सक्षम है जब तक कि अदालत संतुष्ट न हो कि वह व्यक्ति अपने बीमारी के कारण, पूछे गए प्रश्नों को समझने और उनके तर्कसंगत उत्तर देने में असमर्थ है.
न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह पहले ऐसे व्यक्ति से थोड़ी पूछताछ करे ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या उसके पास आवश्यक स्तर की बुद्धि है ताकि वह शपथ के उद्देश्य को समझ सके और उससे पूछे गए प्रश्नों को समझता है, और तर्कसंगत रूप से उत्तर देने में भी सक्षम है. अदालत ऐसे गवाह की योग्यता के संबंध में डॉक्टर की राय भी ले सकती है.
साक्ष्य अधिनियम की धारा 119 के अनुसार, जहां एक गवाह बोल नहीं सकता है, तो वह किसी भी तरीके से साक्ष्य दे सकता है जिससे वह समझदारी से संवाद कर सके, अर्थात लिखित रूप में या संकेतों द्वारा साक्ष्य दे सकता है, और उसकी गवाही को खुले न्यायालय में दर्ज़ किया जाएगा और उसकी वीडियोग्राफी भी की जाएगी.
राजस्थान राज्य बनाम दर्शन सिंह (2012) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई गूंगा व्यक्ति ठीक से लिखने में सक्षम है, तो उसका साक्ष्य लिखित रूप में लिया जाना चाहिए और जहां सांकेतिक भाषा का उपयोग करना आवश्यक हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वास्तविक संकेत दर्ज़ किया जाए ना कि केवल उनकी व्याख्या को दर्ज़ किया जाना चाहिए.
भारतीय न्याय प्रणाली में साक्षी (Witness) सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसलिए उनकी विश्वसनीयता को निर्धारित करने वाले कारकों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए. धारा 118, गवाह की क्षमता को परिभाषित करते हुए, गवाह द्वारा दिए गए साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में नियम नहीं बनाती है, बल्कि यह अदालत के सामने गवाही देने के लिए गवाहों की क्षमता से संबंधित नियम बनाती है.
इस धारा में योग्यता का एक सरल और सीधा परीक्षण बताया गया है और वो है कि गवाह को साक्ष्य देने के लिए सक्षम तब ही माना जाएगा जब वह पूछे गए प्रश्नों को समझने में सक्षम हो और तर्कसंगत उनका उत्तर देने में भी सक्षम है.
गवाहों की कुछ विशेष श्रेणियों जैसे बाल गवाहों, दिमागी रूप से बीमार व्यक्तियों और अत्यधिक वृद्धावस्था के लोगों के संबंध में, अदालत को यह निर्धारित करने के लिए अधिकार दिया जाता है कि ऐसे गवाह सबूत देने में सक्षम हैं या नहीं.