नई दिल्ली: अक्सर ऐसा देखा जाता है जब चुनाव नजदीक आता है तो राजनीति के गलियारों में कई बड़े फेरबदल होते है । राजनीति में अपनी जगह बनाने या फिर सत्ता कि चाहत रखने वाले नेता कभी इस दल तो कभी उस दल में जाने कि कोशिश करते है, और इसी चाहत को पूरा करने के लिए अपनी पार्टी का साथ छोड़ किसी दूसरे पार्टी में शामिल हो जाते है, और अपनी पार्टी से धोखा भी करते है ।
इसके लिए वे जो रास्ता अख्तियार करतें है वह कानूनी रुप से गलत भी होता है, और ये अपराध की श्रेणी में भी आता है। क्या है भारतीय संविधान में इससे जु़ड़े प्रावधान, आइये जानते है।
भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची में 'दल बदल विरोधी कानून' (Anti-Defection Law) कहा जाता है, ये वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के द्वारा लाया गया है। इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्य करार देना है, ताकि संसद की स्थिरता बनी रहे।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे अहम् हैं और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं, लेकिन आज़ादी के कुछ वर्षों के बाद ही दलों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी, इसके साथ हि विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। 1960-70 के दशक में ‘आया राम गया राम’ अवधारणा प्रचलित हो चली थी। जल्द ही दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की ज़रूरत महसूस होने लगी, अतः वर्ष 1985 में संविधान संशोधन के ज़रिये दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।
1967 में, हरियाणा के विधायक गया लाल ने पंद्रह दिनों के भीतर तीन बार अपनी राजनीतिक पार्टी बदली - पहले कांग्रेस से जनता पार्टी में, फिर वापस कांग्रेस में और फिर जनता पार्टी में। 'आया राम, गया राम' इस प्रकार भारतीय राजनीति में एक लोकप्रिय मुहावरा बन गया, जिसका संदर्भ विधायकों (विधायी निकायों के सदस्य, जैसे सांसद या विधायक) से है जो बार-बार अपनी राजनीतिक निष्ठा बदलते हैं और एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल में चले जाते हैं।
दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है, जब एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है , यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। या जब किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है, यदि कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है या फिर छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
दल-बदल से जुड़े अपवाद यदि कोई व्यक्ति स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है।
इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा, यदि किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायकों ने विलय के पक्ष में मतदान किया है तो उस पार्टी का किसी दूसरी पार्टी में विलय किया जा सकता है।
दल-बदल विरोधी कानून एक उचित सुधार था लेकिन इसके अपवादों ने इस कानून की मारक क्षमता को कम कर दिया। जो दल-बदल पहले एकल होता था अब सामूहिक तौर पर होने लगा।
अतः वर्ष 2003 को संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया।
इस संशोधन के ज़रिये मंत्रिमंडल का आकार भी 15 फीसदी सीमित कर दिया गया। हालाँकि, किसी भी कैबिनेट सदस्यों की संख्या 12 से कम नहीं होगी, इस संशोधन के द्वारा 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें प्रावधान था कि एक-तिहाई सदस्य एक साथ दल बदल कर सकते थे।
इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका इन सभी देशों में जनप्रतिनिधि प्रायः अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, फिर भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं।
इस वाद में सुप्रिम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि "अध्यक्ष या सभापति द्वारा दल बदल विरोधी कानून’ के तहत अंतिम निर्णय लेने से पहले की गई कार्यवाही की बीच में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती और न ही न्यायपालिका के कार्यवाही के बीच में कोई हस्तक्षेप करना अनुमेय ( permissible ) होगा, इसका एकमात्र अपवाद ‘अंतर्वर्ती अयोग्यता’ (Interlocutory Disqualifications) या निलंबन के ऐसे मामले हैं जिनके गंभीर, और अपरिवर्तनीय नतीजे और परिणाम हो सकते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसी वाद में न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि दल बदल विरोधी कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिये गए निर्णय में त्रुटियों की जाँच का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।