नई दिल्ली: महाभियोग एक आधिकारिक निष्कासन प्रक्रिया है, जिसका इस्तेमाल राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों को पद से हटाने के लिए किया जाता है. महाभियोग प्रस्ताव सिर्फ तब लाया जा सकता है जब गैरकानूनी गतिविधियों के आधार पर कोई सिस्टम में उच्च पद पर है और उसके द्वारा संविधान का उल्लंघन, दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित हो गया हों.
अभी तक भारत में सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग नहीं लगाया गया है. जस्टिस वी रामास्वामी सर्वोच्च न्यायालय के पहले ऐसे न्यायाधीश थे जिनके खिलाफ महाभियोग शुरू किया गया था. इस मामले में जांच समिति ने न्यायाधीश को दोषी पाया था परन्तु प्रस्ताव लोकसभा में हार गया था.
महाभियोग प्रस्ताव का ज़िक्र संविधान के अनुच्छेद 61, 124 (4) व (5), 217 और 218 में किया गया है.
संविधान के अनुच्छेद 124 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और अनुच्छेद 61 राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है. अनुच्छेद 124(4) सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को हटाने से संबंधित है और सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को उसके कार्यालय से हटाने के लिए अपनाई जाने वाली दिशानिर्देशों को स्थापित करता है. अनुच्छेद 124 का भाग 4 कहता है कि देश के मुख्य न्यायाधीश को संसद में महाभियोग की प्रक्रिया से केवल संसद ही हटा सकती है.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(4) और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 द्वारा निर्देशित है. हालाँकि इसमें आपराधिक गतिविधियाँ या अन्य न्यायिक अनैतिकताएँ शामिल हैं.
संविधान के अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्ते निर्धारित की गई हैं और अनुच्छेद 218 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाने के प्रावधान का उल्लेख है.
जज (इन्क्वॉयरी) एक्ट, 1968 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश या अन्य किसी जज को केवल अनाचार या अक्षमता के आधार पर ही हटाया जा सकता है.
नियमानुसार, महाभियोग प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में लाया जा सकता है, लेकिन लोकसभा में इसे पेश करने के लिए कम से कम 100, और राज्यसभा में कम से कम 50 सांसदों के दस्तख़त ज़रूरी होते हैं.
इसके बाद अगर सदन के स्पीकर या अध्यक्ष उस प्रस्ताव को स्वीकार करें (नामंजूर भी हो सकता है) तो दोनों सदनों के अध्यक्ष मिलकर तीन सदस्यों की एक समिति बनाकर न्यायाधीश पर लगे आरोपों की जांच करवा सकते हैं.
उस समिति में एक सुप्रीम कोर्ट के जज, एक हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, और एक कानूनविद को शामिल किया जाता है. पूर्ण जांच के बाद जांच समिति अपनी रिपोर्ट अध्यक्ष या स्पीकर को सौंप देती है जो उसे अपने सदन में पेश करते हैं.
यदि पदाधिकारी दोषी साबित हों जाए तो सदन में वोटिंग कराई जाती है. प्रस्ताव पारित होने के लिए उसे सदन के कुल सांसदों का बहुमत या वोट देने वाले सांसदों में से दो तिहाई से ज्यादा का समर्थन मिलना अनिवार्य है.
किसी जज को हटाने का अधिकार सिर्फ़ राष्ट्रपति के पास होता है इसलिए दोनों सदनों में ये प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद इसे मंज़ूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है.
भारत में आज तक किसी जज को महाभियोग लगाकर नहीं हटाया गया क्योंकि कभी भी कार्यवाही पूरी नहीं हो सकी. इन मामलों में या तो प्रस्ताव को बहुमत नहीं मिला, या फिर जजों ने उससे पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया. हालांकि, इस पर विवाद जारी है.
जज वी. रामास्वामी: महाभियोग का सामना करने वाला पहले जज सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामास्वामी को माना जाता हैं. उनके खिलाफ 1990 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे. परन्तु यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया क्योंकि उस वक्त सत्ता में मौजूद कांग्रेस ने वोटिंग नहीं की और प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत नहीं मिला.
जस्टिस पीडी दिनाकरन: साल 2011 में सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस पीडी दिनाकरन के ख़िलाफ़ भी महाभियोग लाने की तैयारी हुई थी. उन पर पद का दुरुपयोग करके ज़मीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे आरोप लगे थे, लेकिन सुनवाई के कुछ दिन पहले ही दिनाकरन ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
जज सौमित्र सेन: कोलकाता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन देश के दूसरे ऐसे जज थे, जिन्हें 2011 में अनुचित व्यवहार के लिए महाभियोग का सामना करना पड़ा. यह भारत का अकेला ऐसा महाभियोग का मामला है जो राज्य सभा में पारित होकर लोकसभा तक पहुंचा. हालांकि लोकसभा में इस पर वोटिंग होने से पहले ही जस्टिस सेन ने इस्तीफ़ा दे दिया.
जस्टिस एस के गंगेल: वर्ष 2015 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जस्टिस एस के गंगेल के ख़िलाफ़ महाभियोग लाने की तैयारी हुई थी. उन पर 2015 में एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था, लेकिन दो साल तक चली जाँच में वो आरोपी साबित नहीं हुए.
जस्टिस जे बी पार्दीवाला: 2015 में गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस जे बी पार्दीवाला के ख़िलाफ़ भी महाभियोग की कार्यवाही लाने की तैयारी हुई थी. 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में जाति से जुड़ी (आरक्षण संबंधित) अनुचित टिप्पणी करने का आरोप था लेकिन 19 दिसंबर को उन्होंने अपनी टिप्पणी वापिस ले ली.
जस्टिस सीवी नागार्जुन रेड्डी: आंध्र प्रदेश/तेलंगाना हाई कोर्ट के जस्टिस सीवी नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ 2016 और 2017 में दो बार महाभियोग की कार्यवाही के लिये राज्यसभा में प्रतिवेदन दिया गया था लेकिन इन प्रस्तावों को कभी ज़रूरी समर्थन नहीं मिल पाया. उन पर अधीनस्थ अदालत के कामकाज में हस्तक्षेप कर न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का और एक जूनियर दलित न्यायाधीश के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करके अपशब्द कहने का आरोप था.