Code Of Criminal Procedure: महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष किसी भी व्यक्ति के इक़बालिया बयान को CrPC के section 164 के तहत दर्ज किया जाता है. आज हम आपको बताएंगें CRPC section 164 के तहत दर्ज किए गए बयानों को कैसे दर्ज किया जाता है, इसका क्या कानूनी महत्व है महत्व है.
जब भी महानगर मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने कोई स्वीकारोक्ति (confession) या बयान दर्ज किए जाते है तो ये बयान इक़बालिया बयान कहलाता है. इन बयानों को CrPC की धारा 164 के तहत दर्ज किया जाता है.
किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने अपराध को स्वीकार करना स्वीकारोक्ति कहलाता है. न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा राज्य (एनसीटी दिल्ली) बनाम नवजोत संधू मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा की स्वीकारोक्तियां बेहद विश्वसनीय होती है क्योंकि कोई तर्कसंगत व्यक्ति खुद के खिलाफ तब तक स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि उसकी अंतरात्मा सच बोलने के लिए प्रेरित न करे.
किसी भी मामले में न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज कराने के दो महत्वपूर्ण कारण है:
CrPC की धारा 164 की उपधारा (1) मजिस्ट्रेट को किसी व्यक्ति का बयान या उसका स्वीकारोक्ति दर्ज करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) करती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मामले में उसके पास अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडक्शन) है या नहीं. यदि उसके पास ऐसा अधिकार क्षेत्र नहीं है तो उपधारा (6) लागू होगी.
बयान शब्द एक गवाह द्वारा बयान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अभियुक्त के बयान भी शामिल है और यह स्वीकारोक्ति के बराबर नहीं है.
उपधारा (1) में कहा गया है कि: कोई भी मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट, चाहे उसके पास मामले में अधिकार क्षेत्र हो या नहीं, इस अध्याय के तहत या किसी अन्य कानून के तहत अंवेषण (इन्वेस्टिगेशन) के दौरान या किसी अन्य कानून के तहत, या किसी भी समय जांच या विचारण शुरू होने से पहले उसके सामने किए गए किसी भी स्वीकारोक्ति या बयान को दर्ज कर सकता है.
CrPC की धारा 164 की उपधारा 2 के तहत कुछ चेतावनियों की बात की गई है. वैधानिक प्रावधानों के अनुसार मजिस्ट्रेट को सबसे पहले अभियुक्त को ये समझाना होता है कि उसे ये स्वीकारोक्ति देने के लिए बाध्य नहीं किया गया है. अगर उसने ऐसा किया तो इसका इस्तेमाल उसके खिलाफ भी हो सकता है. साथ ही मजिस्ट्रेट को खुदकी संतुष्टि के लिए अभियुक्त से स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति का सवाल पूछना भी जरूरी है. ताकि वो उपधारा (4) के तहत अपेक्षित प्रमाण पत्र दे सके.
मजिस्ट्रेट को खुद को संतुष्ट करना चाहिए कि स्वीकारोक्ति करने वाले अभियुक्त पर कोई दबाव या बल का इस्तेमाल नहीं किया गया था. स्वीकारोक्ति के स्वैच्छिक चरित्र को खराब करने के लिए अभियुक्त के व्यक्ति का कोई भी इल्जाम लगाना। जब इसे न केवल धारा के तहत अमान्य ठहराया गया था, बल्कि इसका उपयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अन्य प्रावधानों जैसे धारा 21 और 29 के तहत नहीं किया जा सकता था.
महाबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य में अदालत ने कहा कि, जहां मजिस्ट्रेट अभियुक्त को यह समझाने में विफल रहता है कि वह स्वीकारोक्ति करने के लिए बाध्य नहीं था और यदि उसने ऐसा किया, तो इस तरह के स्वीकारोक्ति को उसके खिलाफ सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, इस तरह दर्ज किए गए स्वीकारोक्ति को ध्यान में नहीं रखा जा सकता है.
इसके साथ ही CrPC की धारा 164 की उपधारा 3 ये गारंटी देती है कि किसी भी व्यक्ति पर पुलिस उस काम या बयान के लिए दबाव नहीं डाल सकती जिसके लिए वो राजी नहीं है. इसके साथ ही प्रारंभिक पूछताछ और स्वीकारोक्ति दर्ज करने के बीच का अंतराल 24 घंटे नहीं हो सकता.
CrPC की धारा 164 की उपधारा 164 (5A) के अनुसार जैसे ही कोई बलात्कार संबंधी अपराध पुलिस अधिकारी की जानकारी में आता है, तो वह पीड़िता को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास बयान दर्ज कराने के लिए ले जाने के लिए कर्तव्यबद्ध होता है.