नई दिल्ली: अपराध तो कई हैं लेकिन हमारे कानून में उन्हे दो भागों में विभाजित किया गया है एक संज्ञेय अपराध और दूसरा असंज्ञेय अपराध. संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध को क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (CrPC), 1973 में परिभाषित किया गया है. इस अधिनियम की धारा 2 (सी) के अनुसार ऐसा अपराध जिसमें पुलिस किसी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती है, वह संज्ञेय (Cognizable) अपराध कहलाता है. वहीं जिन मामलों में पुलिस बिना वारंट के जांच या गिरफ्तार नहीं कर सकती है जैसे छोटे मामले, उसे असंज्ञेय अपराध कहते हैं. इन अपराधों से निपटने के लिए प्रशासन को कानून के तहत कई तरह की शक्तियां दी गई है, ताकि वो उन शक्तियों का प्रयोग कर अपराध और अपराधी पर लगाम लगा सकें. चलिए जानते हैं संज्ञेय अपराधों में CrPC के किस धारा के तहत जांच पुलिस अधिकारी की क्या शक्तियां है.
दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC) की धारा 156 के तहत संज्ञेय मामलों की जांच के लिए पुलिस अधिकारी के शक्तियों के बारे में प्रावधान किया गया है. इस धारा को तीन उप धाराओं में बांटा गया है.
उपधारा 1 - कोई पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी (Officer in Charge) मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी ऐसे संज्ञेय मामलों (Cognizable Case) की जांच (Investigation) कर सकता है, जिसकी जांच या विचारण करने की शक्ति (Power of trial) उस थाने की सीमाओं के अंदर के स्थानीय क्षेत्र पर अधिकारिता (Jurisdiction) रखने वाले कोर्ट को अध्याय 13 के उपबंधों के अधीन है.
उपधारा 2- किसी भी संज्ञेय मामले में पुलिस अधिकारी (Police officer) के किसी कार्यवाही को किसी भी प्रक्रिया (Process) पर इस आधार पर सवाल (in question) नहीं किया जाएगा कि वह मामला ऐसा था जिसमें ऐसा अधिकारी (Officer) इस धारा के अधीन अन्वेषण/जांच (Investigation) करने के लिए सशक्त (strong) नहीं था.
उपधारा 3 - इस उपधारा के तहत बताया गया है कि धारा 190 के अधीन सशक्त किया गया कोई मजिस्ट्रेट पूर्वोक्त प्रकार के जांच का आदेश दे सकता है.
मधुबाला बनाम सुरेश कुमार (1997), केस
इस मामले में अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि एक मजिस्ट्रेट धारा 190(1)(a) के तहत संज्ञेय अपराध का संज्ञान ले सकता है या अपराध का खुलासा करने वाली शिकायत मिलने के बाद धारा 156(3) के तहत पुलिस जांच का आदेश दे सकता है. जब कोई मजिस्ट्रेट किसी शिकायत की जांच का आदेश देता है, तो पुलिस को शिकायत को प्राथमिकता मानते हुए एक संज्ञेय मामला दर्ज करना चाहिए.
धारा 156(3) के तहत इस तरह का निर्देश मिलने के बाद, पुलिस को धारा 156(1) के तहत शिकायत की जांच करनी चाहिए. जांच पूरी होने के बाद, उन्हें धारा 173(2) के तहत एक पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी, जिस पर एक मजिस्ट्रेट धारा 190(1)(b) के तहत अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है.