भारतीय कानून के तहत, विवाह की वैधता और उसके परिणामों को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है. हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि यदि किसी विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत अमान्य घोषित किया गया है, तो उस विवाह के एक पक्ष को स्थायी भरण-पोषण या एलिमनी की मांग करने का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि यदि विवाह को अमान्य घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है, तो उस दौरान भी भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है.
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 11 के अंतर्गत, यदि विवाह को अमान्य घोषित किया जाता है, तो वह विवाह कानूनी दृष्टिकोण से अस्तित्व (Void ab initio -which does not exist) में नहीं होता. फिर भी, अदालत ने यह निर्णय लिया कि धारा 25 के अंतर्गत स्थायी भरण-पोषण का अधिकार विवाह के अमान्य होने की स्थिति में भी लागू होता है. अदालत ने कहा कि विधायिका ने कानून में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है, चाहे वह तलाक का आदेश हो या विवाह का अमान्य होना. जैसा कि अदालत ने स्पष्ट किया, भरण-पोषण का दावा तब उत्पन्न होता है जब फैमिली कोर्ट द्वारा कोई आदेश पारित किया जाता है. धारा 25 के अनुसार, भरण-पोषण का अधिकार पति और पत्नी दोनों को है, और यह अधिकार उस स्थिति में भी लागू होता है जब विवाह को अमान्य घोषित किया गया हो.
जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस एजी मसीह की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण के अधिकारों की तुलना धारा 25 के अधिकारों से नहीं की जा सकती. धारा 125 केवल पत्नी या बच्चे के लिए भरण-पोषण का अधिकार प्रदान करती है, जबकि धारा 25 दोनों पक्षों को समान अधिकार देती है. इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि कानून में विवाह की वैधता के संबंध में स्पष्ट प्रावधान हैं। यदि विवाह अमान्य है, तो भी भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है.
इसी महत्वपूर्ण मामले में बंबई हाई कोर्ट के पीठ के निर्णय की निंदा की, जिसमें विवाह को अमान्य घोषित करते हुए महिला के लिए 'अवैध पत्नी' और 'विश्वसनीय प्रेमिका' (Illegitimate wife and Faithful mistress) के रूप में संबोधित किया गया था. अदालत ने इस शब्दावली से आपत्ति जताते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति को सम्मानपूर्ण जीवन जीने का मौलिक अधिकार है. ऐसे शब्दों का प्रयोग किसी महिला के अधिकारों का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट इस मामले में स्पष्ट किया कि किसी महिला को 'अवैध पत्नी' या 'विश्वसनीय प्रेमिका' के रूप में संबोधित करना संविधान के आदर्शों के खिलाफ है. अदालत ने कहा कि ऐसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग हाई कोर्ट के जजमेंट में दुर्भाग्यपूर्ण है और यह महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह को दर्शाता है. न्यायालय ने यह भी कहा कि कोई भी व्यक्ति ऐसे विशेषणों का उपयोग नहीं कर सकता है जब वह किसी महिला की बात कर रहा हो, जो एक अमान्य विवाह का हिस्सा है.
सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि अमान्य विवाहों में स्थायी भरण-पोषण देने से "अजीब परिणाम" सामने आएंगे. अदालत ने कहा कि धारा 25 के तहत भरण-पोषण का आदेश देना विवेकाधीन है. यदि भरण-पोषण के लिए आवेदन करने वाले पति या पत्नी का आचरण ऐसा है कि उसे विवेकाधीन राहत का अधिकार नहीं है, तो मैरिज कोर्ट हमेशा स्थायी भरण-पोषण के लिए प्रार्थना को ठुकरा सकता है.
हिंदू विवाह अधिनियम का विश्लेषण करते हुए, अदालत ने कहा कि विवाह न्यायालय उन प्रक्रियाओं में अंतरिम भरण-पोषण दे सकता है जिनमें धारा 9 से 13 के तहत आदेश के लिए आवेदन किया गया है, यदि अदालत यह निष्कर्ष निकालता है कि पत्नी या पति के पास अपनी सहायता के लिए पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है, भले ही मैरिज कोर्ट को यह लगता है कि दोनों पक्षों के बीच विवाह अमान्य या रद्द करने योग्य है, तो भी अदालत अंतरिम भरण-पोषण देने से वंचित नहीं होता. यह निर्णय अदालत की विवेचना पर निर्भर करता है. अदालत हमेशा उस पक्ष के आचरण पर विचार करेगा जो राहत की मांग कर रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धारा 11 के तहत अमान्य घोषित विवाह का एक साथी स्थायी भरण-पोषण या भरण-पोषण की मांग कर सकता है, जो कि धारा 25 के तहत लागू होता है. स्थायी भरण-पोषण का आदेश देने का निर्णय हमेशा प्रत्येक मामले के तथ्यों और पक्षों के आचरण पर निर्भर करता है. अदालत ने यह सुनिश्चित किया है कि महिलाओं को उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं होने दिया जाएगा, चाहे विवाह वैध हो या अमान्य.
केस टाइटल: Sukhdev Singh vs Sukhbir kaur