नई दिल्ली: संज्ञेय अपराध से संबंधित जानकारी मिलते ही प्राथमिकी (FIR) दर्ज करना पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य है, लेकिन कई बार अपराधों से पीड़ित लोगों की शिकायत के बावजूद पुलिस उन्हें परेशान करती है और प्राथमिकी दर्ज नहीं करती है.
हमारे देश के कानून के अनुसार अगर पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार करती है, तो पीड़ित पक्ष के पास अपनी शिकायत कराने के साथ ही कई प्रावधान दिए है.
CrPC की धारा 154 की उप-धारा 1 के तहत दी गई जानकारी को आमतौर पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में जाना जाता है. प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) पुलिस द्वारा तैयार किया गया एक लिखित दस्तावेज है, यह तब तैयार किया जाता है जब कोई व्यक्ति पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में सूचना देता है.
यह आम तौर पर एक संज्ञेय अपराध के शिकार व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस में दर्ज कराई गई शिकायत है. वहीं, धारा 154 की उप-धारा 2 के अनुसार पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता को प्राथमिकी (FIR) की एक प्रति प्रदान करना अनिवार्य है.
ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2013) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस अधिकारी द्वारा प्राथमिकी (FIR) को दर्ज़ करना अनिवार्य है यदि सूचना एक संज्ञेय अपराध के होने का खुलासा करती है और इन मामलों में कोई प्रारंभिक जांच (Preliminary Inquiry) की भी अनुमति नहीं है.
पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी (Station House Officer) अपने प्रादेशिक क्षेत्राधिकार (Territorial Jurisdiction) के भीतर हुए किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में प्राथमिकी (FIR) दर्ज करने से इंकार नहीं कर सकता. FIR दर्ज नहीं करने की स्थिति में शिकायतकर्ता अपने मामले की शिकायत एक पत्र के रूप में किसी भी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, पुलिस कमिश्नर या उस जिले के पुलिस अधीक्षक को कर सकता है.
पुलिस अधीक्षक/पुलिस कमिश्नर द्वारा भी कोई जांच नहीं करने की स्थिती में शिकायतकर्ता न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) के समक्ष शिकायत दर्ज़ करवाने के लिए आवेदन दायर कर सकता है. जिसके पास संबंधित थाने (वह थाना जिसमें प्राथमिकी दर्ज करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया था) पर क्षेत्राधिकार है.
यह उपाय सूचना देने वाले को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत उपलब्ध है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि धारा 156(3) के तहत आवेदन के साथ शिकायतकर्ता को उन शिकायतों/पत्रों की प्रतियों को भी प्रस्तुत करना होगा जो उसने संबंधित पुलिस स्टेशन के समक्ष और उसके बाद पुलिस अधीक्षक/पुलिस कमिश्नर के समक्ष दायर की थी, यह प्रदर्शित करने के लिए कि शिकायतकर्ता ने मजिस्ट्रेट के पास आने से पहले सभी उपायों को समाप्त कर दिया है और उसके बाद ही न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन दायर किया है.
मजिस्ट्रेट आवेदन ध्यान से पढ़ेंगे और यह तय करेंगे कि क्या शिकायतकर्ता द्वारा दी गई सूचना किसी संज्ञेय प्रकृति के अपराध का खुलासा करती है या नहीं और क्या इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर प्राथमिकी (FIR) दर्ज करना आवश्यक है. यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि संज्ञेय अपराध को अंजाम दिया गया है तो वह पुलिस अफसर को प्राथमिकी (FIR) दर्ज करने का आदेश पारित करेंगे.
पुलिस अधिकारियों की ओर से प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार करना बहुत आम बात है. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे कि शक्तिशाली या उच्च संपर्क वाले आरोपियों की रक्षा करना या गरीब पीड़ितों को परेशान करना, या लोक सेवकों का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार, आदि. इन्हीं स्थितियों से निपटने के लिए उपरोक्त कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं, ताकि अपराधों से पीड़ित लोग, जो पहले ही बहुत दिक्कतें सह चुके हैं, उनका और शोषण ना हो और उनको न्याय मिल सके.
यदि पुलिस एक संज्ञेय अपराध के संबंध में प्राथमिकी (FIR) दर्ज़ नहीं करती है तो ऐसा करने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोर्ट की अवमानना (Contempt of Court) का मामला दर्ज़ किया जा सकता है क्योंकि ललिता कुमारी मामले के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जिन मामलों में शिकायतकर्ता द्वारा दी गई सूचना एक संज्ञेय अपराध के होने का खुलासा करती है, उन मामलों में प्राथमिकी (FIR) दर्ज़ करना अनिवार्य है.
ललिता कुमारी के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि प्राथमिकी दर्ज नहीं करने वाले दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए, यदि उनके द्वारा प्राप्त सूचना संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है. तो इसको ध्यान में रखते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनिक कार्यवाही (Disciplinary Proceedings) भी शुरू की जा सकती है.
यदि शिकायतकर्ता एसिड अटैक, यौन अपराधों, मानव तस्करी या दुष्कर्म के अपराधों के संबंध में पुलिस अधिकारी को सूचना देता है और पुलिस अधिकारी प्राथमिकी (FIR) दर्ज़ नहीं करते हैं तो ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 166A के तहत मुकदमा दर्ज़ किया जा सकता हैं और दोषी पाए जाने पर उन्हें कम-से-कम 6 महीने और अधिकतम 2 साल के कारावास की सज़ा होगी और जुर्माना भी भरना पड़ेगा.