Maneka Gandhi vs Union Of India: भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में मेनका गाँधी का मामला बेहद महत्वपूर्ण है. सुप्रीम कोर्ट का यह ऐसा ऐतिहासिक निर्णय था जिसने संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे को वास्तव में विस्तृत किया और कानून की उचित प्रक्रिया के बारे नई बातो को सामने रखा. इस मामले की शुरुआत 02 जुलाई 1977 की घटना से है जब मेनका गांधी विदेश जाना चाहती हैं, लेकिन पुलिस अधिकारियों ने उनका पासपोर्ट निलंबित कर दिया और उन्हें पासपोर्ट जब्त करने का उचित कारण नहीं बताया.
मेनका गांधी ने यह कहकर अदालत का दरवाजा खटखटाया कि यह कार्यवाही अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है. इस मामले पर फैसला 1978 में आया जिसे 7 सदस्यीय जजों की बेंच ने दिया जिसका भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इसने विधि की उचित प्रक्रिया नामक एक नया दरवाज़ा खोला।=. आइये जानते है क्या था मेनका गाँधी बनाम भारत संध का मामला...
जब 02 जुलाई,1977 को एक आदेश द्वारा मेनका गांधी का पासपोर्ट 'सार्वजनिक हित में' ज़ब्त कर लिया गया, तो उन्होंने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका (Writ Petition) दायर की, और सरकारी आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करता है.
यूनियन गवर्नमेंट ने अपनी लिखित प्रस्तुतियों में जवाब दिया कि उनका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया क्योंकि 'जांच आयोग' के समक्ष कानूनी कार्यवाही के संबंध में उसकी उपस्थिति आवश्यक थी.
इस मामले में उठाए गए मुद्दों में से एक प्रमुख बात यह थी कि क्या विदेश यात्रा का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत आएगा और दूसरा यह है कि क्या कानून द्वारा स्थापित किसी भी प्रक्रिया से अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कमी को मनमाना माना जाता है? साथ ही क्या पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 10(3) अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है? और नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत पर भी सवाल उठाया गया.
इस मामले ने "प्रक्रियात्मक नियत प्रक्रिया" के नियम को स्थापित किया, जिसके लिए आवश्यक है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध निष्पक्ष और न्यायपूर्ण प्रक्रियाओं के अनुसार किया जाना चाहिए. अदालत ने यह भी कहा कि विदेश यात्रा का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक हिस्सा है और इसे राज्य द्वारा मनमाने ढंग से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है.
पहले मुद्दे के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 21 प्रकृति में बहुत व्यापक था और विदेश यात्रा की अवधारणा अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अंतर्गत आएगी, और दूसरे मुद्दे के लिए न्यायालय ने कहा कि आर्टिकल का सुनहरा त्रिकोण (Golden Triangle) जो कि अनुच्छेद 14,19,21 है, हमें सभी को संबोधित करने की आवश्यकता है क्योंकि वे आपस में जुड़े हुए हैं. तीसरे मुद्दे पर, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 10(3) असंवैधानिक नहीं माना जायेगा क्योंकि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में पासपोर्ट को निलंबित कर सकते हैं.
यह निर्णय एक नई गुंजाइश प्रक्रिया भी खोलता है जिसे कानून की उचित प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है जिसका अर्थ है कि यदि कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया किसी व्यक्ति के जीवन और उसके मौलिक अधिकारों से वंचित कर रही है तो सर्वोच्च न्यायालय उस प्रक्रिया को शून्य कर सकता है, या फिर टाल सकता है.
उचित प्रक्रिया’ शब्द में मूल और साथ ही प्रक्रियात्मक उचित प्रक्रिया शामिल है. “उचित प्रक्रिया” की मूलभूत आवश्यकता है कि सुनवाई का अवसर, इस बात पर जागरूक होना कि कोई मामला लंबित है, एक सूचित विकल्प बनाने के लिए स्वीकार करना या चुनाव करना और उचित निर्णय लेने वाले निकाय के सामने इस तरह के विकल्प के कारणों पर जोर देना.
अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समानता की बात करता है. राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के सामान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) और कानून का शासन(Rule Of Law) का सिद्धांत अनुच्छेद 14 से निकलकर आता है.
अनुच्छेद 19(1) : भारत के नागरिकों को छह प्रकार की स्वतंत्रताएँ प्रदान करता है जो कि कुछ इस प्रकार है. सबसे पहला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दूसरा शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन करने की स्वतंत्रता होती है, तीसरा संगम या संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता, चौथा भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता, पाँचवा भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता और अंतिम में कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने की स्वतंत्रता देती है. लेकिन इसके कुछ अपवाद भी है, जैसे कि इन सभी अधिकारों पर उचित कारण से समय -समय पर प्रतिबंध भी लगाया जा सकता है.
अनुच्छेद 21: इसमें यह प्रावधान किया गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा.