हाल ही में गाजियाबाद कोर्ट से एक बड़ी घटना सामने आई, जिसने लीगल फ्रेटरनिटी को शर्मसार कर दिया. घटना एक मामले की सुनावाई के दौरान का है जहां एडवोकेट लगातार अपने मुकदमे को किसी दूसरे जज के पास ट्रांसफर करने की मांग कर रहे थे, जज ने इंकार किया. ये बहस देखते-देखते विवाद में बदल गया, जज को बचाव के लिए आखिरकार पुलिस को बुलाना पड़ा, उसके बाद वकील से जज की रक्षा के लिए पुलिस को लाठी चलानी पड़ी. इस घटना पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने भी प्रतिक्रिया दी है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कोई वकील अदालत की अवमानना का दोषी पाए जाने पर अपनी वकालत जारी रख सकता है? क्या जज उस अमुक वकील को अदालत में पेश होने पर रोक लगा सकती है? आइये जानते हैं कि इन सब सवालों के जवाब...
Contempt Of Court, 1971 के अनुसार, ऐसा कोई भी आचरण, जो अदालत की गरिमा को कम करता है या न्यायिक कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करता है तो उसे अदालत की अवमानना कहा जाता है. मामले को सुन रहे जज पर किसी तरह के फैसले के लिए दवाब बनाना भी अदालत की अवमानना की श्रेणी में आएगा, क्योंकि ये कार्य न्यायिक प्रक्रिया के मानक आचरण के विरूद्ध है.
अदालत की अवमानना के दोषी पाए जाने वाले वकील को प्रैक्टिस करने देने का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी उठा. अवमानना और अदालत की भूमिका से जुड़े इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वकील के आचरण का बारीकी से परीक्षण किया, जिसने अदालत की गरिमा का चुनौती दी थी.
पेशा करने का मौलिक अधिकार, संविधान का अनुच्छेद 19(जी) हर नागरिक को अपने मनपसंद का पेशा अपनाने का अधिकार देता है. हालांकि यह अधिकार सार्वजनिक हित के अधीन है, थोड़ा अच्छे से कहें कि आपको अपने आचरण से समाज का गलत करने नहीं दिया जा सकता. ठीक यहां भी अगर किसी वकील के आचरण से न्यायालय की गरिमा पर सवाल उठने लगे तो उसके खिलाफ सख्त कदम उठाए जा सकते हैं.
इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर किस हद वकील के आचरण को अदालत कुछ स्थितियों में प्रैक्टिस का मौका बरकरार रख सकती है, क्योंकि आजीविका से वंचित करने पर उस वकील और उसके परिवार पालन-पोषण का सवाल भी अदालत के सामने हैं. अदालत की अवमानना विषय की संवेदनशीलता देखें तो वकीलों और जजों की बहस ही अदालत को सही फैसला लेने में मदद करता है, ऐसे में इस आचरण के पहलुओं को ना तो पूरा संकीर्ण ही माना जा सकता है, ना ही बहुत व्यापक किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया और राज्यों के बार काउंसिल, वकीलों के आचरण को नियंत्रित करने की प्राथमिक शक्ति रखते हैं, लेकिन अगर अदालत की गरिमा को कोई ठेस पहुंचती है तो अदालत संबंधित व्यक्ति पर प्रतिबंध लगा सकती है. इसी विषय से जुड़ा Supreme Court Bar Association (SCBA) vs Union of India का मामला है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालय को शक्ति दी है कि वे अदालत की गरिमा बनाए रखने के लिए वकील की उपस्थिति पर रोक लगा सकते हैं, भले बार काउंसिल उस वकील के आचरण के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करें.
सुप्रीम कोर्ट ने Pravin C. Shah vs K.A. Mohd. Ali मामले में भी फैसला दिया है कि जो वकील अवमानना का दोषी हो, उसे न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने से रोका जा सकता है. साथ ही R.K. Anand vs Registrar, Delhi High Court मामले भी अदालत का इसी अनुरूप के फैसला सुनाया है. फैसले में कहा गया कि न्यायपालिक, न्यायालय के कार्य में बाधा उत्पन्न करने से रोकने को लेकर वकील के Right to Practice के अधिकार को सीमित कर सकती है.