तमिलनाडु के इस ऑनर किलिंग यानि मान-सम्मान से जुड़े हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है. अंतरजातीय विवाह के इस मामले में पीड़िता कन्नगी वन्नीयार समुदाय से थी जबकि पीड़ित मुरुगेसन दलित समुदाय से था. उन्होने आपस में गुप्त रूप से शादी कर ली. इस शादी से नाराज पीड़िता कन्नगी-मुरुगेसन को उसके परिवार के सदस्यों ने पूरे गांव के सामने जहर देकर मार डाला. अब सुप्रीम कोर्ट ने मान सम्मान से जुड़े हत्या के मामले (Honour Killing Case) में 11 दोषियों की सज़ा को बरकरार रखा है. अदालत ने कहा कि इस घृणित हत्या के पीछे कारण जातिवाद था, क्योंकि महिला वन्नीयार समुदाय से और पुरुष दलित समुदाय से था. वहीं, इस मामले में कुल 15 लोगों पर मुकदमा चलाया गया था, जिनमें से 13 को दोषी पाया गया. इसमें 11 लोगों को हत्या का दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, जबकि एक को मृत्युदंड दिया गया था, जिसे बाद में हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदल दिया. इस मामले में दो पुलिस अधिकारियों को भी दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी. हालांकि एक अधिकारी की सज़ा को बाद में कम करके दो साल कर दिया गया.
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने मद्रास हाई कोर्ट के जून 2022 के फैसले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया, जिसने दो पुलिस अधिकारियों सहित आरोपी व्यक्तियों की सजा और सजा को बरकरार रखा था. पीठ ने कहा कि पीड़ित कन्नगी को बड़ी संख्या में ग्रामीणों की मौजूदगी में जहर देकर मार दिया गया था. इस भयावह कृत्य के मास्टरमाइंड और मुख्य आरोपी कोई और नहीं बल्कि महिला के पिता और भाई ही थे,
शीर्ष अदालत ने पाया कि हत्या के पीछे का कारण यह था कि कन्नगी "वन्नीयार" समुदाय से संबंधित थी जबकि मुरुगेसन कुड्डालोर जिले के एक ही गांव का दलित था. जोड़े ने मई 2003 में गुप्त रूप से शादी कर ली थी.
अदालत ने 73 पन्नों के ऑर्डर में कहा,
"इसलिए, इस अपराध के मूल में भारत में गहराई से जड़े हुए जाति व्यवस्था है, और विडंबना यह है कि इस सबसे अपमानजनक कृत्य को सम्मान की हत्या का नाम दिया गया है,"
एडवोकेट प्रियाधर्शनी राहुल मुरुगेसन के परिवार के लिए पेश हुए थे. उन्होंने अदालत से मांग किया कि अपराध राज्य के खिलाफ एक कार्य है, लेकिन एक दुष्ट और घृणित अपराध, इसमें आरोपियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए.
वहीं, पुलिस अधिकारियों की लापरवाही पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधिकारियों ने अपनी ड्यूटी पूरी नहीं की और शुरू में एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया, इसलिए उन्हें आईपीसी की धारा 217 और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दोषी पाया गया है. हालांकि, निचली अदालत ने भी पुलिस अधिकारियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसे हाई कोर्ट ने बाद में संशोधित किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को भी बरकरार रखा है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस अधिकारियों की अनदेखी के चलते पीड़ित के परिवार को हाई कोर्ट में जाना पड़ा, जिसके बाद मामले में सीबीआई जांच के आदेश मिले. सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस अधिकारियों की लापरवाही के चलते तमिलनाडु सरकार को मुरुगेसन के परिवार को 5 लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा है. यह मुआवजा सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए मुआवजे के अलावा है.
बता दें कि इस ट्रायल को पूरे होने में 18 साल लगे हैं. इस दौरान कई गवाह अपने बयान से मुकर गए. इस पद्धति पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई. सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि लंबे मुकदमों में गवाहों का मुकर जाना एक आम समस्या है. हालांकि, अदालत ने यह भी कहा कि मुकदमे का उद्देश्य सच्चाई का पता लगाना है और अदालत के समक्ष मौजूद सभी साक्ष्यों की जांच की जानी चाहिए, चाहे वे गवाहों के बयान हों या अन्य साक्ष्य. अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए पर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर आरोपियों को दोषी पाया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर रखे सबूतों के आधार पर 11 लोगों को दोषी पाया है.