सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में सुप्रीम कोर्ट ने आठ दिनों की सुनवाई के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU Act) के अल्पसंख्यक दर्जे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में आज अपना फैसला सुनाने जा रही है. फैसले में सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट करेगी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पास माइनॉरिटी स्टेटस है या नहीं, साथ ही संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत कोई शैक्षणिक संस्थान अल्पसंख्यक दर्जे के लिए कब योग्य है. बता दें कि बता दें कि ये मामला AMU का मेडिकल पीजी कोर्सेस में मुस्लिम कैंडिडेट के लिए 50% आरक्षण लागू करने से जुड़ा है, जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था. अब सुप्रीम कोर्ट इस आरक्षण की संवैधानिकता को भी तय करेगी यानि ये आरक्षण लागू होगा या नहीं. आइये जानते हैं कि इस मामले को आसान शब्दों में और विस्तार से....
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक स्टेटस से जुड़े मामले को सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ (CJI DY Chandrachud) की अगुवाई वाली सात जजों की संवैधानिक पीठ ने लगातार आठ दिन तक सुनवाई करने के बाद फरवरी महीने में अपना फैसला रिजर्व कर लिया था. पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपंकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा है.
आखिरी दिन हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों से सवाल किया कि क्या AMU का अल्पसंख्यक दर्जा (Minority Status) उसके राष्ट्रीय महत्व के संस्थान होने की विशेषता को कम करेगा? केन्द्र ने जबाव में कहा कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों का अल्पसंख्यक स्टेटस होने से ये समाज के कई वर्गों की पहुंच से बाहर हो जाएगा. वहीं, AMU का पक्ष रख रहे सीनियर एडवोकेट डॉ राजीव धवन ने जवाब दिया कि ऐसा सवाल करने से पहले अदालत को यह भी गौर करना चाहिए कि AMU का राष्ट्रीय महत्व का होना और इसके अल्पसंख्यक चरित्र होने के बीच कोई अंर्तविरोध नहीं है.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को इन दो मुख्य सवालों पर फैसला सुनाना है;
बता दें कि संविधान का आर्टिकल 30, अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षणिक संस्थान खोलने व उसका प्रशासन करने के अधिकार से जुड़ा है.
1877 में सर सैयद अहमद खान ने इस्लामी मूल्यों को संरक्षित करते हुए मुसलमानों के बीच आधुनिक ब्रिटिश शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अलीगढ़ में मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (MAO College) की स्थापना की. इसकी जगह 14 सितंबर 1920 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम, 1920 (AMU Act) लागू किया गया, जिसके तहत एमएओ कॉलेज और एक अन्य मुस्लिम विश्वविद्यालय एसोसिएशन को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) में मिला दिया गया. इस एएमयू अधिनियम की धारा 23 के अनुसार, विश्वविद्यालय के शासी निकाय व यूनिवर्सिटी कोर्ट में केवल इस्लाम धर्म से संबंधित व्यक्तियों के शामिल होने का प्रावधान रखा गया. अब देश आजाद होने के बाद, 1951 में AMU Act में संशोधन कर यूनिवर्सिटी कोर्ट में केवल मुस्लिम प्रतिनिधित्व होने के प्रावधान को हटा दिया गया. 1965 में एक और संशोधन ने यूनिवर्सिटी कोर्ट को शासी निकाय से भारत के राष्ट्रपति (President of India) द्वारा नामित सदस्यों वाले निकाय में बदल दिया गया.
पांच जजों की संवैधानिक पीठ में उस वक्त के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस केएन वांचू, जस्टिस आरएस बछावत, जस्टिस वी रामास्वामी, जस्टिस जीके मित्तर और जस्टिस केएस हेगड़े शामिल थे. इस एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ (S. Azeez Basha vs Union of India) मामले में याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि AMU Act, 1920 में हुए संशोधन ने उनके अनुच्छेद 30(1), 26(ए), 25, 29 और 31 के तहत शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है. हालांकि, 20 अक्टूबर, 1967 को पांच न्यायाधीशों की पीठ ने संशोधन को बरकरार रखते हुए कहा कि संशोधनों में याचिकाकर्ताओं के किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं किया है.
पांच जजों की पीठ ने कहा,
"हो सकता है कि 1920 का AMU Act मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रयासों से पारित किया गया हो लेकिन अधिनियम के प्रावधान स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि एएमयू का प्रशासन मुस्लिम अल्पसंख्यकों में निहित नहीं था, इसलिए इस संशोधन से किसी भी याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है."
फिर 1981 में संसद ने AMU Act को संशोधित कर 'विश्वविद्यालय' को भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित संस्थान के रूप में परिभाषित किया, जोकि पहले एमएओ था, बाद में एएमयू बन गया. इस बार AMU Act की धारा 5 में संशोधन कर भारत के मुसलमानों (Muslims of India) की शैक्षिक और सांस्कृतिक उन्नति को बढ़ावा देने से जुड़ा एक नया क्लॉज जोड़ा गया.
अब 2005 में यह विवाद फिर से शुरू हुआ जब एएमयू के स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए 50% आरक्षण को डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ (Dr. Naresh Agarwal v Union of India) मामले (2005) में चुनौती दी गई थी. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि एस अजीज बाशा के आधार पर एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. वहीं, संघ और विश्वविद्यालय ने तर्क दिया कि 1981 के संशोधन में एस अजीज बाशा के फैसले को निरस्त कर दिया गया था. इसलिए, यह मुस्लिम छात्रों के लाभ के लिए प्रावधान कर सकता है. हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की आरक्षण नीति को अमान्य करार देते हुए कहा कि एएमयू एस अजीज बाशा के तहत अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, जिसके चलते मुस्लिमों के लिए किए गए इस विशेष आरक्षण को स्वीकारा नहीं जा सकता है.
साल 2006 में यूपीए सरकार और एएमयू विश्वविद्यालय ने सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी. जस्टिस केजी बालाकृष्णन और जस्टिस डीके जैन की डिवीजन पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे लगाते हुए आरक्षण की संवैधानिकता को तय करने के लिए मामले को तीन जजों की बेंच के पास भेज दिया है. 2016 में बीजेपी की सरकार ने इस आरक्षण मामले में से अपना नाम वापस ले लिया, जिसके बाद ये मामला केवल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का रह गया है.
वहीं, 2019 में तीन जजों की बेंच ने इस मामले को सात जजों की बेंच के पास ट्रासफर किया था, जिस पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ इस पर फैसला सुनाएगी.