भारतीय न्यायिक व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए अनेक प्रावधान बनाए गए है. इसी में से एक वैधानिक या बाध्यकारी जमानत का प्रावधान भी है.
जब कोई व्यक्ति किसी अपराध के कारण पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाता है, तो पुलिस को तय समय सीमा के भीतर चार्जशीट (Charge sheet) को न्यायालय में दाखिल करना होता है। यदि पुलिस इसमें विफल रहती है तो आरोपी जमानत के लिए अर्ज़ी दायर कर सकता है और यह अनिवार्य है कि अदालत आरोपी को जमानत दे.
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के अंतर्गत दी जाने वाली जमानत को 'बाध्यकारी जमानत' या 'वैधानिक जमानत' कहा जाता है. इसके तहत अपराध की प्रकृति के अनुसार यदि पुलिस यथास्थिति 90 दिन या 60 दिन की निर्धारित समय सीमा के भीतर न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र/चार्जशीट दाखिल करने में असफल रहती है तो आरोपी द्वारा जमानत साधिकार मांगी जा सकती है.
मृत्युदंड, आजीवन कारावास और कम से कम 10 साल के कारावास से दंडित अपराधों में पुलिस को चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिन का समय और अन्य अपराधों में 60 दिन का समय दिया जाता है. यह समय सीमा केवल भारतीय दंड संहिता में दिए गए अपराधों पर लागू होती है. ऐसे भी अधिनियम हैं जिनके अंतर्गत पुलिस को चार्जशीट दाखिल करने के लिए ज़्यादा समय भी दिया गया है।
जैसे कि नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (The Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985) के तहत पुलिस को 180 दिन का समय दिया गया है जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है.
राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की 3-जज बेंच ने 2:1 के बहुमत से यह माना कि वैधानिक/बाध्यकारी जमानत लेने के लिए 90 दिनों की अवधि उन अपराधों पर लागू नहीं होगी जिसमें कम से कम कारावास 10 साल या उससे अधिक नहीं है.
हम आपको बता दें कि यदि पुलिस तय समय सीमा के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं करती है तो इसका मतलब ये नहीं है कि आरोपी को कारावास से रिहा कर दिया गया जाएगा. जमानत पाने के लिए व्यक्ति का न्यायालय में अर्ज़ी दायर करना अनिवार्य है. अगर पुलिस आरोपी के अर्ज़ी दायर करने से पहले चार्जशीट दाखिल कर देती है तो उसे वैधानिक या बाध्यकारी जमानत का लाभ नहीं दिया जा सकता है.
बिक्रमजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2020) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरोपी को 'बाध्यकारी जमानत' का एक अपरिहार्य अधिकार (Indefeasible Right) दिया गया है, लेकिन केवल तभी जब वह अपराध की जांच के लिए दी गई अधिकतम समाप्त होने के बाद और चार्जशीट दायर होने से पहले जमानत के लिए आवेदन करता है.
भारतीय न्यायालयों द्वारा कई फैसलों के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि 60/90 दिन की अवधि को उस दिन से गिना जाएगा जिस दिन से व्यक्ति को अदालत द्वारा रिमांड में भेजा गया हो न कि गिरफ़्तारी की तारीख से.
रवि प्रकाश सिंह बनाम बिहार राज्य (2015) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 60 दिनों या 90 दिनों की अवधि की गणना गिरफ़्तारी के बाद पहली रिमांड की तारीख से की जाएगी, न कि गिरफ्तारी की तारीख से और उस तारीख जिस पर आरोप पत्र/चार्जशीट दाखिल की गई है, उसे भी गणना में शामिल किया जाएगा.
जमानत का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना होता है। न्यायालयों ने भी बार-बार व्यक्तियों की स्वतंत्रता को बनाए रखने और आरोपियों को अनुचित कठिनाइयों से बचाने की कोशिश की है। बाध्यकारी या वैधानिक जमानत, नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण करने की दिशा में एक अहम कदम है.