हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जेल में कैदियों के बीच भेदभाव बढ़ानेवाली राज्य नियमावली को रद्द करने का निर्देश दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी है और कैदियों को इससे वंचित करना उपनिवेशिक काल का अवशेष है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने 148 पन्नों के फैसले में संविधान के अनुच्छेद का हवाला देते हुए कहा कि संविधान भी हर प्रकार से इन कृत्यों पर रोक लगाती है.
सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने गुरुवार को दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में ये टिप्पणियां कीं, जिसके तहत इसने शारीरिक श्रम के विभाजन, बैरकों के पृथक्करण और गैर-अधिसूचित जनजातियों और आदतन अपराधियों के कैदियों के प्रति पक्षपात जैसे जाति-आधारित भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया है. इसने उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश सहित 10 राज्यों के कुछ आपत्तिजनक जेल मैनुअल नियमों को असंवैधानिक करार दिया.
सीजेआई ने पीठ के लिए 148 पन्नों का फैसला लिखते हुए संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 23 (जबरन श्रम के खिलाफ अधिकार) के तहत मौलिक अधिकारों पर चर्चा की. अनुच्छेद 21 के तहत विचार करते हुए कहा कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी मिला हुआ है. कैदियों को सम्मान न देना पूर्व-औपनिवेशिक अवशेष है, जहां दमनकारी व्यवस्थाएँ राज्य के नियंत्रण में रहने वालों को अमानवीय और अपमानित करने के लिए डिज़ाइन की गई थीं.
संविधान द्वारा लाए गए बदले हुए कानूनी ढांचे पर ध्यान केंद्रित करते हुए अदालत ने माना है कि कैदियों को भी सम्मान का अधिकार है. अनुच्छेद 14 पर, इसने कहा कि राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. फिर अदालत ने अनुच्छेद 15 पर विचार किया, जो जाति, नस्ल, धर्म, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाती है. यदि राज्य स्वयं किसी भी उल्लेखित आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव करता है, तो यह उच्चतम रूप का भेदभाव है. आखिरकार, राज्य से भेदभाव को रोकने की अपेक्षा की जाती है, न कि इसे बनाए रखने की.
अदालत में कहा,
"यदि राज्य स्वयं किसी नागरिक के विरुद्ध किसी भी उल्लेखित आधार पर भेदभाव करता है, तो यह सर्वोच्च स्तर का भेदभाव है. आखिरकार, राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह भेदभाव को रोके, न कि उसे कायम रखे. इसलिए हमारा संविधान राज्य को किसी भी नागरिक के विरुद्ध भेदभाव करने से रोकता है."
भेदभाव निषिद्ध है, क्योंकि इसका मानव जीवन पर कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं और यह किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ श्रेष्ठता या हीनता, पूर्वाग्रह, अवमानना या घृणा की भावना के कारण उत्पन्न होता है. इतिहास में, ऐसी भावनाओं ने कुछ समुदायों के नरसंहार को जन्म दिया है. भेदभाव से उस व्यक्ति का आत्म-सम्मान भी कम होता है जिसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. यह अवसरों के अनुचित हनन और लोगों के एक समूह के खिलाफ निरंतर हिंसा का कारण बन सकता है.
अस्पृश्यता (Untouchability) पर प्रतिबंध लगाने वाले अनुच्छेद 17 से का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे समाप्त कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसका अभ्यास निषिद्ध है. पीठ ने कहा कि अस्पृश्यता दंडनीय अपराध है और इस प्रावधान का संविधान में एक विशेष स्थान है क्योंकि यह सामाजिक रूप से भेदभावपूर्ण व्यवहार को समाप्त करता है.
अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि हर कोई समान रूप से पैदा होता है। किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व, स्पर्श या उपस्थिति से जुड़ा कोई कलंक नहीं हो सकता. अनुच्छेद 17 के माध्यम से, हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक की स्थिति की समानता को मजबूत करता है. यह माना गया है कि अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार को केवल पशु अस्तित्व तक सीमित नहीं किया जा सकता और इसका अर्थ केवल शारीरिक अस्तित्व से कहीं अधिक है. अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार में निहित है कि यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार है.