नई दिल्ली: एक मामले की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि 'किशोर न्याय अधिनियम' (Juvenile Justice Act) के तहत किसी की भी उम्र की पुष्टि उनके स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट (School Transfer Certificate) के आधार पर नहीं की जा सकती है।
बता दें कि यह बात सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) के न्यायाधीश एस रवींद्र भट्ट (Justice S Ravindra Bhat) और न्यायाधीश अरविंद कुमार (Justice Aravind Kumar) की पीठ ने कही है।
उच्चतम न्यायालय के जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने यह अब्ज़र्व किया है कि एक ट्रांसफर सर्टिफिकेट के माध्यम से किसी की उम्र का प्रमाण नहीं दिया जा सकता है।
अदालत ने एक नाबालिग लड़की के यौन उत्पीड़न और कथित तौर पर उनके बाल विवाह को बढ़ावा देने के लिए बुक किए गए एक व्यक्ति (तत्काल अपीलकर्ता) की दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया।
इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि मद्रास उच्च न्यायालय (Madras High Court) ने डॉक्टर की बात को खारिज करके कि पीड़िता की उम्र 19 साल है, स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट के आधार पर उम्र का जो फैसला किया, वो गलत था।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह माना है कि 'किशोर न्याय अधिनियम' की धारा 94 के अनुसार अगर 'लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम' (POCSO Act) के तहत पीड़ित की उम्र को लेकर विवाद होता है, तो स्कूल के बर्थ सर्टिफिकेट या संबंधित परीक्षा बोर्ड से मैट्रिकुलेशन या समकक्ष सर्टिफिकेट पर ही विश्वास किया जाता है।
यदि स्कूल बर्थ सर्टिफिकेट या मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट न हो तो पंचायत, नगरपालिका प्राधिकरण या निगम द्वारा दिए बर्थ सर्टिफिकेट का इस्तेमाल करना चाहिए।
इन सब में से कोई भी सर्टिफिकेट न हो तो ऑसिफिकेशन टेस्ट या कोई अन्य नवीनतम चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण के जरिए उम्र का पता लगाना चाहिए।
बता दें कि मामला 2015 में दर्ज किया गया था जब नाबालिग लड़की के परिवार ने अपीलकर्ता पर लड़की का अपहरण, शारीरिक शोषण और जबरदस्ती उसकी शादी कराने के आरोप लगाए थे। जहां लड़की ने पहले मैजिस्ट्रेट को यह बताया कि वो अपनी मर्जी से भागी थी और उसने अपनी मर्जी से शारीरिक संबंध बनाए थे वहीं ट्रायल के दौरान वो अपने बयान से मुकर गई थी।
ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को पॉक्सो अधिनियम, बाल विवाह निषेध अधिनियम (Prohibition of Child Marriage Act) और भारतीय दंड संहिता की धारा 366 के तहत आरोपी ठहराया था।
मद्रास उच्च न्यायालय ने पॉक्सो और बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत आरोपी की सजा बरकरार रखी थी लेकिन आईपीसी की धारा 366 के तहत मिलने वाली सजा को रद्द कर दिया, और आजीवन कारावास को कम करके दस साल की जेल की सजा कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने यह नोटिस किया कि जेजे अधिनियम में बताए गए कोई भी दस्तावेज अदालत के समक्ष नहीं लाये गए थे जिससे यह साबित किया जा सके कि पीड़िता की उम्र 18 साल से कम थी। अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन (Prosecution) यह भी साबित नहीं कर सका कि किसी भी प्रकार का शारीरिक शोषण हुआ।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसे जेल से रिहा करने का आदेश दिया।