नई दिल्ली: भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत कई तरह के साक्ष्यों और उनके महत्वों के बारे में बताया गया है. उन्हीं में से एक है Prima Facie Evidence (प्रथम दृष्टया सबूत). जैसे की नाम से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह किस तरह का साक्ष्य होता है. Prima Facie शब्द को लैटिन भाषा से लिया गया है जिसका सीधा मतलब है "at first sight” or “at first appearance”.
कानून की दुनिया में यह बहुचचित शब्द है. इसका सिविल और क्रिमिनल मामलों में कितना महत्व इस पर नजर डालते हैं.
सिविल केस हो या क्रिमिनल केस दोनों में Prima Facie Evidence का इस्तेमाल बहुत किया जाता है. इस तरह के साक्ष्य की प्रवृति ऐसी होती है कि किसी घटना स्थल पर पहली बार जो दिखा उसे एक साक्ष्य मान लिया जाता है जैसे राम अपने घर पहुंचता है और देखता है कि उसका भाई खून से लथपथ हो कर जमीन पर गिरा है और उसके भाभी के हाथों में चाकू है.
अब राम ने उस जगह पर अपने पहले पहल देखा कि उसके भाभी के हाथ में खून से सना चाकू है और उसका भाई जमीन पर गिरा है जिसके अनुसार भाभी ने ही उसके भाई का कत्ल किया है. तो अदालत के लिए यह हो जाएगा Prima Facie Evidence यानी प्रथम दृष्टया सबूत.
ऐसे साक्ष्यों के आधार पर अदालत किसी अभियुक्त को सजा भी सुना सकती है. लेकिन यहां बता दें ऐसे साक्ष्यों को गलत साबित करने के लिए अगर कोई मजबूत एवीडेंस लाया जाए तो इसे गलत भी साबित किया जा सकता है और अभियुक्त आरोपों से बरी हो सकता है.
इस तरह के मामलों में सबूत पेश करने का बोझ वादी (Plaintiff) पर होता है यानी जिसने किसी के खिलाफ वाद दायर किया है. अगर वादी प्रतिवादी के खिलाफ लगाए आरोप को सही साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं पेश कर पाता है तो अदालत मामले को मुकदमे में जाने से पहले ही खारिज कर देगी. वहीं अगर अदालत प्रथम दृष्टया सबूत को सही मानती है तो प्रतिवादी को मुकदमा जितने और अपने खिलाफ लगे आरोप को गलत साबित करने के लिए सबूत पेश करना होगा.
जब भी कोई शिकायत दर्ज कराई जाती है तो यह देखना आवश्यक होता है कि मुकदमा क्यों किया गया है और शिकायत क्या है और क्या यह Prima Facie केस बन रहा है.
ऐसे मामलों में अदालत देखती है कि जो शिकायतकर्ता है वो किस आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि उसके साथ आरोपी ने गलत किया है. अगर अदालत को लगता है कि शिकायतकर्ता द्वारा दिया गया सबूत सही है तो मामले को आगे बढ़ाती है अन्यथा उसे खारिज कर देगी.
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 26 की उपधारा (1) के मुताबिक, प्रत्येक वाद को एक वादपत्र की प्रस्तुति द्वारा स्थापित किया जाएगा, और उसी धारा के उप-धारा (2) के अनुसार शपथ पत्र द्वारा तथ्यों को स्थापित किया जाना चाहिए.
किसी आपराधिक मामले में सबूत पेश करने का भार होता है अभियोजन पक्ष पर. लेकिन कुछ खास मामले हैं- जैसे गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (यूएपीए) , स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (एनडीपीएस), इनमें प्रतिवादी को 'प्रथम दृष्टया' अपनी बेगुनाही प्रदर्शित करनी पड़ती है.
क्रिमिनल केस में प्रथम दृष्टया मामले को स्थापित करने के लिए एक अभियोजन पक्ष को अपराध के प्रत्येक तत्व के समर्थन में विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत करने की जरूरत पड़ती है.
राजस्थान हाई कोर्ट में जस्टिस फरजंद अली ने एक फैसले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि ट्रायल कोर्ट की ओर से आरोप तय होना एक निर्णायक कार्रवाई है और शक्ति का महत्वपूर्ण अभ्यास भी है. लेकिन किसी व्यक्ति को बिना किसी प्रथम दृष्टया साक्ष्य के ट्रायल की कठोरता से गुजरने के लिए मजबूर करना उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
अदालत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1)(डी) और 13(2) सहपठित IPC की धारा 120B के तहत एक मामले में एक आरोपी के खिलाफ आरोप तय करने के खिलाफ दायर याचिका पर एक फैसले में यह टिप्पणी की.