नई दिल्ली: हमारे देश के संविधान के अनुसार न्यायपालिका को एक अहम निर्णायक की भूमिका दी गई है. न्यायपालिका में अदालत वह प्राधिकरण हैं जो कानून की व्याख्या करती है और उसे अमल में लाती है.
यह अदालतें ही है जिनके पास कानून को लागू करने की शक्तियां हैं और इसलिए न केवल अदालत के आदेश बल्कि खुद अदालत का भी सम्मान किया जाना चाहिए.
देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अदालतों की पवित्रता को बनाए रखा जाना आवश्यक है जो केवल अदालत और उसके आदेशों का सम्मान बनाए रखकर ही की जा सकती है.
अदालत की अवमानना या Contempt of Courts, अदालत और उसके अधिकारियों के प्रति अवज्ञाकारी या अनादर करने का अपराध है, यह ऐसा व्यवहार हैं जो अदालत के अधिकार, न्याय और गरिमा का विरोध और निरादर करता है.
अदालत के अधिकारियों का असम्मान या अवमानना करना और जानबूझकर अदालत के आदेश का पालन ना करना, मोटे तौर पर अवमानना की ये दो श्रेणियां हैं.
अदालतों के सम्मान बनाए रखने और अदालतों की शक्तियों के प्रति आम नागरिकों, जनप्रतिनिधियों से लेकर लोक सेवकों तक को जिम्मेदार बनाए रखने के लिए वर्ष 1971 में न्यायालय अवमानना अिधिनयम (Contempt of Courts Act, 1971) पारित किया गया.
Contempt of Courts Act की धारा 2(i) के अनुसार अदालत की अवमानना के भी दो प्रकार है. आपराधिक और सिविल अवमानना के रूप में उन्हें विभाजित किया गया है.
सिविल अवमानना का अर्थ किसी अदालती आदेश की अवमानना से है. यानी अदालत के किसी आदेश, फैसले, निर्णय, डिक्री, निर्देश, रिट या अन्य अदालती प्रक्रिया को जानबूझकर अवहेलना करना, असम्मान करना या अदालत के कार्यवाही, उपकर्म का जानबूझ कर उल्लंघन करना शामिल है.
आपराधिक अवमानना से तात्पर्य अदालत या अदालत से जुड़े किसी भी प्रकार के सम्मानित वर्ग जैसे जज, न्यायिक अधिकारी, अदालत के अधिकारी—कर्मचारी,अदालत का असम्मान करने से है. यह असम्मान या अवमानना किसी प्रकाशित लिखित लेख, सार्वजनिक तौर पर दिए गए बयान, मौखिक बयान, कथन या कोई ऐसा संकेत जो किसी भी अदालत के अधिकार को कम करता है या न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है या न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करता है, तो उसे आपराधिक अवमानना मानी जाती है.
Contempt of Courts Act के अनुसार, हमारे देश में केवल सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को ही अवमानना कार्यवाही का अधिकार दिया गया है. संविधान के अनुच्छेद 129 और 142(2) के तहत सुप्रीम कोर्ट को अवमानना अधिनियम के तहत कार्यवाही का अधिकार प्राप्त है.
जबकि देशभर के हाई कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 215 और Contempt of Courts Act 1971 के तहत अवमानना का नोटिस या कार्यवाही करने का अधिकार है.
संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट अभिलेख कोर्ट हैं और वे स्वयं की अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति रखते है.
अभिलेख कोर्ट से तात्पर्य है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के प्रत्येक फैसले और आदेश को रिकॉर्ड किया जाता है और इसलिए उन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है.
संविधान का अनुच्छेद 142 (2) देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट को महत्वपूर्ण शक्तियां प्रदान करता है.
इस अनुच्छेद के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के पास किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करने, किसी भी दस्तावेज को पेश करने के लिए आदेश देने की पूरी शक्ति है और साथ ही उसे किसी भी व्यक्ति को अवमानना के लिए सजा देने की शक्तियां भी है.
संविधान के साथ साथ Contempt of Courts Act में देश की जिला अदालतों को अवमानना की कार्यवाही करने का अधिकार नहीं दिया गया है.
जिला न्यायपालिका में किसी भी अदालत या जज की अवमानना किए जाने पर जिला अदालत अवमानना की कार्यवाही के लिए मामले को हाईकोर्ट को भेजती है.
यानी जिला अदालतों के पास अदालत की अवमानना जारी करने या अवमानना कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है.
चूंकि जिला अदालतें हाईकोर्ट के अधीन होती है इसलिए अवमानना अधिनियम की धारा 10 के अनुसार प्रत्येक हाई कोर्ट उसके अधीन की अधीनस्थ अदालतों के लिए भी अवमानना जारी करने या अवमानना की कार्यवाही करने के लिए अधिकृत होता है.
Contempt of Courts Act 1971 के अनुसार देश की सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को किसी भी अवमानना के मामले में अवमानना की कार्यवाही करने की तीन प्रक्रियाए है.
सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट अपने क्षेत्राधिकार में घटित हुई किसी घटना, बयान, कथन या किसी भी अवमानना के कृत्य की जानकारी, किसी भी माध्यम से प्राप्त होने की स्थिति में वह स्वयं की प्रेरणा से अवमानना की कार्यवाही शुरू कर सकता है.
अदालत को उक्त घटना, बयान या अवमानना की सूचना अखबार, मीडिया, किसी व्यक्ति द्वारा या स्वयं द्वारा भी प्राप्त हो सकती है.
जब सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट खुद की प्रेरणा यानी स्वयं ही किसी अवमानना के मामले पर कार्यवाही शुरू करता है तो वह स्वप्रेरित प्रसंज्ञान से दायर अवमानना कही जाती है.
सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी आदेश, फैसले, निर्णय, डिक्री, निर्देश, रिट या अन्य किसी अदालती प्रक्रिया की अवमानना करने पर जब कोई एक पक्ष अवमानना याचिका दायर करता है तो ऐसी स्थिति में अदालत अवमानना की कार्यवाही करती है.
इस तरह के मामलों में याचिका दायर करने वाला व्यक्ति अदालत के फैसले की पालना नही होने की स्थिति में दायर करता है. वह फैसला जो उस पक्षकार के समर्थन में अदालत द्वारा दिया जा चुका है लेकिन उसकी पालना नहीं हो रही होती है.
इस तरह के मामलों में याचिका दायर करने वाले को किसी तरह की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि यह उस पक्षकार का अधिकार होता है और ऐसे मामलों को अदालत को सुनना ही पड़ता है.
किसी बयान, टिप्पणी या अपने किसी व्यक्तिगत कृत्य के जरिए जब कोई नागरिक अदालत की अवमानना करता है तो उससे आहत देश का कोई भी नागरिक अवमानना करने वाले व्यक्ति के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही के लिए अदालत में याचिका दायर कर सकता है.
इस तरह की अवमानना की कार्यवाही में जब किसी भी शख्स के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाती है, तब Contempt of Court Act 1971 की धारा 15 के तहत अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति आवश्यक होती है.
इस तरह के मामलों में शिकायतकर्ता अवमानना में उस व्यक्ति के कृत्य का संपूर्ण उल्लेख करने के साथ उसके द्वारा अवमानना किये जाने की नियत का भी वर्णन किया जाता है.
नवंबर 2020 में कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर किए जाने से पूर्व भी प्रयागराज के अधिवक्ता अनुज सिंह को तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से लिखित अनुमति लेनी पड़ी थी.
ऐसे मामलो में सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर करने पर अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल तो वही किसी हाईकोर्ट में अवमानना याचिका के लिए राज्य के महाधिवक्ता की अनुमति आवश्यक है.
लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए कानूनविदों ने कई मामलों को अदालती अवमानना की कार्यवाही से भी अलग रखा है. अवमानना की कार्यवाही के लिए कुछ ऐसे ही अपवाद शामिल किए गए है.
न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्ट करना, न्यायिक अधिनियम की निष्पक्ष आलोचना करना, अनजाने में अदालती आदेश की अवमानना या गलती करना, किसी मामले के पेंडिंग रहते बिना जाने लंबित कार्यवाही पर रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए कोर्ट की कार्यवाही में हस्तक्षेप करना, अदालती आदेश की एक से अधिक तरीकों से व्याख्या करने पर अवमानना करने वाले को शामिल नहीं किया गया है.
अदालत की अवमानना किए जाने के बावजूद अगर अवमानना की घटना को एक वर्ष का समय बीत चुका है तो ऐसे मामलों में अवमानना की कार्यवाही नही की जा सकती है.
Contempt of Court Act 1971 की धारा 12 के अनुसार, देश की सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को अदालत की अवमानना के लिए सजा देने का अधिकार है.
इस अधिनियम की धारा 12(1) में कहा गया है कि अवमानना का अपराध करने वाले वाले व्यक्ति को 1 दिन से लेकर 6 माह तक की जेल सजा दी जा सकती है.
या अवमानना के अपराधी पर 2 हजार रुपये का जुर्माना तक लगाया जा सकता है. अदालत अपने विवेक के अनुसार जेल और जुर्माने की दोनो सजाए भी दे सकती है.
देश के बहुचर्चित सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के केस में उन पर 1 रुपये का जुर्माना लगाया गया था. कई महीनों तक कई घंटे सुनवाई के बाद अदालत ने 1 रुपये का सांकेतिक तौर पर जुर्माना लगाया था जिससे अदालत के प्रति लोगों में सम्मान बना रहें.