नई दिल्ली: साक्ष्य विधि में परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) के पीछे हमेशा एक मिथक होता है कि यह किसी को उसके कार्य के लिए दोषी साबित करने के लिए पर्याप्त रूप से स्पष्ट है क्योंकि साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) के बजाय परिस्थितियों पर आधारित होता है। हालाँकि, जब प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव होता है तो मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर करता है, आइये जानते है इसके बारे में विस्तार से।
किसी भी मामले में जब कोई ठोस सबूत या गवाह का मिलना मुश्किल हो जाता है तब न्यायालय परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्भर होती है और उसी के आधार पर कोर्ट अपना फैसला सुनाता है। परिस्थितिजन्य साक्ष्य' में सभी प्रासंगिक तथ्य (Relevant Facts) शामिल होते हैं। यह द्वितीयक साक्ष्य नहीं है यह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण है और यह केवल प्रत्यक्ष साक्ष्य है जिसे अप्रत्यक्ष रूप से लागू किया जाता है।
एक तथ्य जो न्यायालय के समक्ष रखा जाता है और वह तथ्य स्वयं हमें कार्यवाही के अपराध के बारे में कुछ नहीं बताता है। यह कार्रवाई के क्रम के तत्वों में से एक नहीं है, लेकिन यह अदालत को कुछ धारणाएं या कुछ अनुमान लगाने की अनुमति देता है जो इसे दूसरे तथ्यों को परिभाषित करने में सक्षम होने के बहुत करीब लाता है जो सीधे कार्रवाई की श्रृंखला से संबंधित हैं।
आप ऐसी परिस्थितियों को देख सकते हैं जो सीधे तौर पर अपराध से संबंधित नहीं हैं लेकिन वे परोक्ष रूप (Indirect) से अपराध की ओर इशारा करती हैं। वे इस बात की अधिक संभावना रखते हैं कि अदालत में जो प्रस्ताव दिया गया है वह सच है।
किसी अभियुक्त व्यक्ति का कबूलनामा सबसे अच्छा सबूत माना जाता है अगर यह स्वैच्छिक है, ऐसा करने के लिए आरोपियों को तब तक पीड़ा दी जाती है जब तक वे कबूल नहीं कर लेते, और उनके कबूलनामे को उनके खिलाफ अपराध के सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वर्तमान समय में, अगर पीड़ा देने का ज़रा भी संदेह हो तो कोई भी अदालत स्वीकारोक्ति (Admission) पर कार्रवाई नहीं करेगी, लेकिन यह जांच के लिए सौंपे गए व्यक्ति को सबूत इकट्ठा करने के लिए ऐसे तरीकों का सहारा लेने से नहीं रोकता है।
इसका समाधान कहीं और है,अदालतों में नहीं। झूठ पकड़ने वाली मशीनों और सच बोलने वाली दवाओं जैसी यांत्रिक सहायता का उपयोग किया जा रहा है, लेकिन कोई भी अदालत केवल ऐसी यांत्रिक सहायता पर कार्रवाई करने के बारे में नहीं सोचेगी।
अदालत अपने सामने प्रस्तुत साक्ष्यों पर विचार करने और दलीलों को सुनने के बाद सबसे पहले इस परिणाम पर पहुंचती है कि पक्षकारों द्वारा घोषित या नकारे गए तथ्य वास्तव में मौजूद हैं या नहीं और सभी तथ्यों का पता लगाने के बाद अदालत कानून का नियम लागू करती है। यदि कानून के नियम में दिए गए सभी तथ्य मौजूद पाए जाते हैं, तो कानून के नियम के अनुसार जो अधिकार या दायित्व होगा, उसका आदेश न्यायालय द्वारा दिया जाता है।
डॉ राजेश तलवार व डॉ नूपुर तलवार नोएडा के जलवायु विहार के फ्लैट में रहते थे। उनके साथ घर में उनकी बेटी (आरुषि) और उनका घरेलू नौकर हेमराज सहित केवल चार ही लोग थे और रात के 12 से 1 बजे के बीच आरुषि व हेमराज की हत्या हो गयी। आरुषि का शव अगले दिन दोपहर उसके अपने बेडरूम में मिला जबकि हेमराज का शव दूसरे दिन उसी फ्लैट की छत पर बरामद हुआ।
आरुषि के शव की हालत देखकर लगता था कि हत्यारे ने उस पर काफी तेज वार किये होंगे परन्तु इसके बावजूद आरुषि की न तो कोई चीख निकली और न किसी को कोई शोरगुल सुनायी दिया।
बाद में खोजबीन करने पर जो तथ्य निकलकर सामने आये वे काफी चौंकाने वाले थे। जैसे कि हत्या के बाद आरुषि के कमरे में रखे मोबाइल व कम्प्यूटर रात 1 से 4 बजे के बीच कई बार इस्तेमाल हुए पाये गये। नौकर हेमराज और आरुषि दोनों अपने-अपने कमरों में थे। जब सुबह नौकरानी आयी तो डाक्टर दम्पती ने अपनी बेटी की मौत के बारे में उसे बताया।
रिपोर्ट करने पर पुलिस घर आयी परन्तु वह भी जल्दबाजी में घटनास्थल की तफ्तीश छोड़ हेमराज को खोजने के बहाने घर के बाहर चली गयी। एक दिन बाद जब रिटायर्ड डीएसपी के के गौतम फ्लैट की छत पर तहकीकात (Investigation) करने गये तो उन्हें नौकर हेमराज का शव वहाँ पड़ा मिला।
हेमराज का शव मिलते ही पूरे हत्याकाण्ड की दिशा ही बदल गई और आरुषि हेमराज हत्याकाण्ड एक रहस्य बन गया। 12 नवम्बर 2013 को केस की अन्तिम सुनवाई पूर्ण करने के बाद गाजियाबाद में विशेष रूप से गठित सीबीआई अदालत ने 25 नवम्बर 2013 को निर्णय सुनाना निश्चित किया।
न्यायाधीश श्याम लाल के समक्ष पूरे मुकदमे के दौरान सीबीआई की टीम ने 39 लोगों की गवाही पेश की, जबकि बचाव पक्ष की ओर से केवल सात साक्ष्य ही सामने आये। अदालत में आरुषि के माता-पिता नूपुर व राजेश तलवार दोनों पर भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) की धारा 302/34 (समान उद्देश्य से हत्या करने), 201 (साक्ष्यों को छिपाने) के तहत मुकदमा चलाया गया। इसके अलावा आरुषि के पिता (डॉ राजेश) पर एक अन्य धारा 203 (फर्जी रिपार्ट दर्ज़ करने) के अन्तर्गत एक और मुकदमा भी साथ-साथ चला।
गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत ने आरुषि-हेमराज रहस्यमय हत्याकाण्ड का फैसला सुनाते हुए आरुषि के माता-पिता नूपुर एवं राजेश तलवार को दोषी ठहराया। फैसला आते ही दोनों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया और डासना जेल में भेज दिया ।
यह एक ऐसा मामला था जिसमें न ही कोई ठोस सबूत मिल रहे थे और न ही कोई गवाह। यह मामला पूर्णत: परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्भर था, और उसी के आधार पर इसका निर्णय सुनाया गया।