अनन्या श्रीवास्तव
भारत के नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी कानून और संविधान की है; एक नागरिक यदि अपने अधिकारों का हनन होते देखता है, तो वो हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका (Writ) दायर करके इसके खिलाफ आवाज उठा सकता है।
भारतीय संविधान में मूल रूप से पांच तरह की याचिकाएं हैं जिनमें 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' (Habeas Corpus) भी शामिल है। 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' क्या है और इस याचिका को किन परिस्थितियों में दायर किया जा सकता है, आइये जानते हैं.
भारतीय संविधान (The Constitution of India) के तहत दी गईं पांच याचिकाओं में से एक है 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' (Habeas Corpus), जिसके जरिये अवैध रूप से की गई गिरफ्तारी (Illegal Detention or Imprisonment) के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त की जा सकती है।
इस याचिका के फाइल होने पर अवैध रूप से हिरासत में लेने वाले व्यक्ति या अथॉरिटी द्वारा गिरफ्तार शख्स को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। इस याचिका के आधार पर अदालत यह तय करती है कि उस आदमी को गिरफ्तार किया जाना चाहिए या नहीं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (Article 32 of the Indian Constitution) के तहत 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका को उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) इशू कर सकता है और अनुच्छेद 226 (Article 226) के तहत इसे उच्च न्यायालय (High Courts) इशू कर सकते हैं।
'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका दायर करने के लिए एक शख्स को हिरासत में होना जरूरी है; जो हिरासत में है, उसके रिश्तेदार इस याचिका को दायर कर सकते हैं। 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' एक अनजान शख्स द्वारा, सार्वजनिक हित में भी फाइल की जा सकती है।
इस याचिका को औपचारिक या अनौपचारिक, दोनों तरह से दायर किया जा सकता है लेकिन ध्यान रहे कि एक ही याचिका को एक ही कोर्ट के अलग-अलग जज के सामने नहीं पेश किया जा सकता है।
इसका मतलब यह है कि यदि कोई शख्स गलत तरीके से हिरासत में लिया गया है और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन हुआ है, तो यह याचिका दायर की जा सकती है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि कुछ ऐसी परिस्थितियां भी हैं जब आप 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' दायर नहीं कर सकते हैं, इन हालातों में अदालत आपकी इस याचिका को खारिज कर देगा।
अगर आपने एक ऐसे शख्स या अथॉरिटी के खिलाफ 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका दायर की है जो उस अदालत के क्षेत्राधिकार में नहीं आता, तो अदालत इसे रद्द कर देगी। अगर शख्स को अदालत के फैसले के तहत हिरासत में रखा गया है, तो भी 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' दायर नहीं की जा सकती है।
बता दें कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court) की लखनऊ बेंच के पास भी 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' का एक मामला आया था जिसे जस्टिस शमीम अहमद (Justice Shamim Ahmed) ने रद्द कर दिया है।
यह मामला दो बच्चों की कस्टडी का था जिसपर इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह कहना है कि बच्चों की कस्टडी को लेकर फैसला लेने के लिए माता-पिता 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं.
कोर्ट का यह कहना था की इस मुद्दे से जुड़े फैसले बच्चों के कल्याण को ध्यान में रखकर लिए जाने चाहिए, यहां बंदी प्रत्यक्षीकरण का कोई मतलब नहीं है।