Sexual Harassment At Work Place: किसी समाज का विकास इस बात से निर्धारित होता है कि वह सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है. हमारे समाज में महिलाएं और बच्चे कमजोर माने जातें हैं और उनके अधिकारों की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण है. सामान्य रूप से महिलाओं का कार्यस्थलों शोषण और यौन उत्पीड़न जैसे घटनाएं उन्हें उच्च स्तर के जोखिम में डालती है.
इन्हीं मामलों से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य के मामले में दिशा निर्देश जारी किये. आइये जानते है कि क्या था विशाखा बनाम राजस्थान राज्य का मामला और शीर्ष कोर्ट द्वारा जारी किये गए गाइडलाइन्स के बारे में विस्तार से.
विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले की शुरुआत भंवरी देवी नामक महिला के बलात्कार मामले के साथ शुरू होती है. आपको बता दें कि राजस्थान में हो रहे बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार द्वारा एक योजना चलाई जा रही थी, इसी योजना में भंवरी देवी नाम की एक महिला भी काम करती थी.
वर्ष 1992 में किसी गांव में 1 साल की एक बच्ची का विवाह हो रहा होता है जिसे रुकवाने का काम भंवरी देवी द्वारा किया गया लेकिन वह विवाह रुकवाने में सफल नहीं हो पाती हैं और उन्हें यह भी एहसास होता है कि राजस्थान सरकार की पूरी व्यवस्था ही बाल विवाह को रुकवाने में फेल है. भंवरी देवी द्वारा किए गए इस बाल विवाह के विरोध पर गांव द्वारा उनका बहिष्कार कर दिया जाता है, और गांव के 5 लोगों द्वारा उनका बलात्कार किया जाता है. जिसके बाद केस दायर होता है मगर साक्ष्यों के अभाव में पांचों आरोपी बरी कर दिए जाते हैं.
इस घटना के बाद राजस्थान के 5 एनजीओ मिलकर के सुप्रीम कोर्ट में एक पिटिशन दायर करती है और वह पिटीशन विशाखा बनाम राजस्थान राज्य के नाम से जानी गई. यह मामला मुख्य तौर पर भारत सरकार के अंतर्गत का था मगर भारत सरकार ने इस विषय पर किसी भी तरह का कोई कानून नहीं बनाया था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन के तहत निर्देश दिए. यहां बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिया गया आदेश संविधान के आर्टिकल 21 के द्वारा सरकार द्वारा बनाए गए कानून के बराबर ही होता है.
इस मामले की सुनवाई के दौरान यह सवाल उठाया गया था कि -
याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क दिया गया कि कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा किया गया यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 14, 15, 19(1)(g) का उल्लंघन है. वकील ने महिलाओं के लिए सुरक्षित कामकाजी माहौल को ध्यान में रखते हुए कानून के उचित प्रावधान की कमी को उजागर करते हुए कानून की आवश्यकता बतायी.
प्रतिवादी की ओर से वकील ने, वास्तव में, चर्चा की गई सामाजिक बुराई से निपटने में न्यायालय की सहायता के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान की. इसके अतिरिक्त, सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा और सुश्री नैना कपूर ने भी न्यायालय की मदद की. इसके अलावा, श्री फली एस नरीमन को न्याय मित्र नियुक्त किये जाने से भी न्यायालय को सहायता मिली.
शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि ऐसी घटना संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19(1)(g) का स्पष्ट उल्लंघन है. इसके अलावा, न्यायालय ने प्रासंगिक (Relevant) कुछ अन्य प्रावधानों का भी संकेत दिया, विशेष रूप से, अनुच्छेद 42 का (काम और मातृत्व राहत की न्यायसंगत और मानवीय स्थितियों के लिए प्रावधान) और 51ए (नागरिक के मौलिक कर्तव्य).
दूसरे, न्यायालय ने आवश्यक घरेलू कानून के अभाव में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के निमयों पर विचार किया. अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि एक प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन जो मौलिक अधिकारों के साथ-साथ इसके दायरे में सामंजस्य के अनुरूप है, उसे अनुच्छेद 51(C) और अनुच्छेद 253 (अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और सम्मेलनों को लागू करने के लिए संसद को भारत के क्षेत्र के पूरे या किसी भी हिस्से के लिए कानून बनाने का अधिकार देता है।) के तहत संवैधानिक गारंटी के उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए लागू किया जा सकता है.
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और मानदंडों के निष्पादन के लिए कानून बनाने के लिए संसद को भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ सूची के तहत प्रविष्टि (Entry) के साथ देखा जाना चाहिए। इसके अलावा कोर्ट ने अनुच्छेद 73 (संघ की कार्यकारी शक्ति की सीमा) पर भी जोर दिया.
अदालत ने लैंगिक समानता प्रदान करने के लिए दिशानिर्देशों की आवश्यकता को स्वीकार किया और यौन उत्पीड़न की सुरक्षा की प्रकृति और गरिमा के साथ काम करने के अधिकार के सार्वभौमिक होने के रूप में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और मानदंडों द्वारा निभाए गए महत्व पर जोर दिया.
महिला को गलत तरीके से छूना या छूने की कोशिश करना, गलत तरीके से देखना या घूरना, यौन संबंध बनाने के लिए कहना, अश्लील टिप्पणी करना, यौन इशारे करना, अश्लील चुटकुले सुनाना या भेजना, पोर्न फिल्में दिखाना ये सभी यौन उत्पीड़न के दायरे में आता है.
10 या उससे ज्यादा कर्मचारियों वाले हर संस्थान को इंटरनल कम्प्लेंट्स कमेटी (Internal Complaint Committee) बनाना अनिवार्य है. इस कमेटी की अध्यक्ष महिला ही होगी, कमेटी की आधी से ज्यादा सदस्य भी महिलाएं ही होंगी. इसके अलावा यौन शोषण के मुद्दे पर काम कर रहे एनजीओ की एक महिला प्रतिनिधि को भी कमेटी में शामिल करना जरूरी है.
संस्थान में काम करने वाली कोई भी महिला अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की शिकायत आईसीसी से कर सकती है, जिसकी जांच कमेटी करेगी और 90 दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश करेगी.
कमेटी अपनी जांच में अगर किसी को आरोपी पाती है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धाराओं के तहत कार्रवाई की जा जाएगी. सभी संस्थानों की आईसीसी को हर साल एक बार अपने पास आई शिकायतों का लेखा-जोखा और कार्रवाई की विस्तृत रिपोर्ट के रूप में सरकार के पास भेजना होता है. अगर महिला कमेटी के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह पुलिस में कम्प्लेन भी कर सकती है.
इसके लिए महिला IPC Section 354 A के तहत मुकदमा दर्ज करा सकती है. ऐसे मामलों के साबित होने पर आरोपी को तीन साल की सजा और जुर्माना हो सकता है. पहली बार ऐसा करने पर आरोपी को 1 से 3 साल तक की सजा और जुर्माना किया जा सकता है. वहीं दूसरी बार ऐसा करने पर दोषी को 3 से 7 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.
इस स्थिति में आईपीसी की धारा 354 D के तहत केस दर्ज कराया जा सकता है. पहली बार ऐसे अपराध का दोषी पाए जाने पर तीन साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. वहीं दूसरी बार ऐसा करते पाए जाने पर 5 साल की सजा और जुर्माने लगाया जा सकता है. हालांकि, सरकारी कार्य पर तैनात कोई व्यक्ति अगर मिशन के उद्देश्य से किसी का पीछा करता है तो उसे छूट मिलेगी.
इस स्थिति में आरोपी के खिलाफ संबंधित यौन उत्पीड़नी की धाराओं के साथ-साथ आईटी एक्ट के तहत भी केस दर्ज कराया जा सकता है.