उत्तर प्रदेश की सहकारी समितियों में मुख्य सचिवों और जिलाधिकारियों जैसे शीर्ष नौकरशाहों की पत्नियों के पदेन पदों पर रहने की स्थिति पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को राज्य सरकार से कहा कि वह अपने नियमों में संशोधन कर औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाने वाली प्रथा को समाप्त करे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य को आदर्श नियम बनाने की आवश्यकता है ताकि समितियों में प्रशासनिक अधिकारियों के परिवार के सदस्यों को पदेन ना रखा जाए. शीर्ष अदालत में समिति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें उच्च न्यायालय ने समिति के संशोधन को खारिज कर दिया, जिसमें जिलाधिकारी की पत्नी को अध्यक्ष के बजाय 'संरक्षक' बनाने का प्रयास किया गया था.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के एम नटराज के इस कथन पर आपत्ति जताई कि राज्य को इन समितियों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है.
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि उन्हें इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आने की जरूरत है .राज्य को इस तरह की समिति-सोसाइटी के लिए आदर्श नियम बनाने होंगे. पीठ ने कहा कि सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत, जिन सोसायटी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ दिया गया था, उन्हें राज्य सरकार द्वारा लागू आदर्श नियमों का पालन करना अनिवार्य है.
पीठ ने कहा, ‘
‘संशोधित प्रावधान यह सुनिश्चित करेगा कि उप-नियमों/नियमों या नीति में ऐसा कोई प्रावधान न हो जो राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों के परिवार के सदस्यों को पदेन पद देने की औपनिवेशिक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता हो.’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे आदर्श उपनियमों का पालन न करने या उनकी अवहेलना करने की स्थिति में सोसायटी अपनी वैधानिक दर्जा खो देगी. पीठ ने याचिकाकर्ता समिति को निर्देश दिया कि वह ‘‘नजूल’’ भूमि या किसी अन्य संपत्ति पर कोई भी अतिक्रमण या किसी तीसरे पक्ष के अधिकार का सृजन न करे, जो सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे सौंपी गई हो.
शीर्ष अदालत ने छह मई को बुलंदशहर के जिलाधिकारी की पत्नी को जिले में पंजीकृत सोसाइटी की अध्यक्ष के रूप में काम करने के लिए अनिवार्य करने वाले अजीबोगरीब नियम को मंजूरी देने पर राज्य सरकार की खिंचाई की और इसे राज्य की सभी महिलाओं के लिए अपमानजनक करार दिया.
न्यायालय ने कहा था, ‘‘चाहे वह रेड क्रॉस सोसाइटी हो या बाल कल्याण समिति, हर जगह जिलाधिकारी की पत्नी ही अध्यक्ष होती हैं. ऐसा क्यों होना चाहिए?’’
शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार से सवाल किया कि ऐसे व्यक्ति को नेतृत्व कौशल या सामुदायिक भावना के आधार पर नहीं बल्कि उनके वैवाहिक संबंध के आधार पर समाज का मुखिया बनाने के पीछे क्या कारण है.
पीठ बुलंदशहर की 1957 से कार्यरत जिला महिला समिति से संबंधित विवाद की सुनवाई कर रही थी. समिति को विधवाओं, अनाथों और महिलाओं के अन्य वंचित वर्गों के कल्याण के लिए काम करने को लेकर जिला प्रशासन द्वारा ‘‘नजूल भूमि (सरकार द्वारा पट्टे पर दी गई भूमि) दी गई थी.
मूल उपनियमों के अनुसार बुलंदशहर जिले के कार्यवाहक जिलाधिकारी की पत्नी को अध्यक्ष के रूप में कार्य करना आवश्यक था, समिति ने 2022 में उपनियमों में संशोधन करने का प्रयास किया, जिससे जिलाधिकारी की पत्नी को अध्यक्ष के बजाय समिति का संरक्षक बना दिया गया. हालांकि, उप रजिस्ट्रार ने कई आधार पर संशोधनों को रद्द कर दिया, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने समिति की याचिका को खारिज कर दिया. उच्च न्यायालय के आदेश के बाद समिति ने शीर्ष अदालत का रुख किया.
पीठ ने सोमवार को कहा कि समिति सामान्य रूप से काम करती रहेगी, लेकिन जिलाधिकारी की पत्नी को सहकारी समिति का पदाधिकारी बनने या उसके काम में दखल देने से रोक दिया गया.