सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने पुलिस प्रशासन को हिदायत दी है. पुलिस ने कोर्ट को पैसे वसूलने से मना किया है. वे सिविल कोर्ट (Civil Court) के जैसे व्यवहार न दिखाएं. कोर्ट ने कहा कि सिविल और अपराधिक वादों में अंतर समझने की जरूरत है. संविदा/कॉन्ट्रेक्ट (Contract) में तय नियमों के प्रति असहमति दिखाना और अपराध करने में काफी अंतर है और पुलिस प्रशासन (Police Administration) को इसे समझने की जरूरत है.
जस्टिस संजीव खन्ना (Sanjiv Khanna)और दीपंकर दत्ता (Dipankar Datta) की बेंच ने इस केस (Case) में सुनवाई की. बेंच ने कहा कि कॉन्ट्रैक्ट को तोड़ने में और अपराध करने में बहुत अंतर है. कॉन्ट्रेक्ट को तोड़ना और पैसे का भुगतान नहीं करना एक सिविल अपराध की श्रेणी में है, जो अपराधिक मामले से भिन्न है.
कोर्ट ने कहा,
"पुलिस का मुख्य कार्य आरोपों की जांच करना होता है. पुलिस के पास पैसे वसूलने की ना तो शक्ति है, ना ही उन्हें ये अधिकार दिए गए है. वे पैसे वसूल कर सिविल कोर्ट जैसा बर्ताव करने से बचें."
कोर्ट ने इस शिकायत को रद्द कर दिया. वहीं, आरोपी के खिलाफ इस मुकदमे को भी खारिज कर दिया.
चार्जशीट है कि आरोपी ने वादी के साथ हुए कॉन्ट्रेक्ट को तोड़ा है, जिसे धोखाधड़ी का मामला न बताकर एक अपराधिक मुकदमा बनाया गया है. हाईकोर्ट ने भी इस मामले में वाद के अपराधिक या सिविल अंतर को स्पष्ट नहीं किया और मामले को अपराधिक बताया. हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि शिकायत में आरोपी के खिलाफ किसी अपराध को स्पष्ट नहीं किया गया है. वास्तव में उन तथ्यों की स्पष्ट कमी है जिससे मामले को समझा जाए. यह शिकायत केवल पुलिस द्वारा पैसे निकलवाने के लिए की गई है. सुप्रीम कोर्ट ने मामले को रद्द कर दिया.