हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पंद्रह साल से जेल में बंद रेप केस में दोषी पाए गए व्यक्ति को बरी कर दिया है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि आर्टिकल 21 के तहत सबको फेयर ट्रायल का आधार है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में कई जगहों पर आरोपी का सही से प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है, जबकि संविधान की आर्टिकल 39ए के तहत प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य की जिम्मेदारी है. बता दें कि मामले में याचिकाकर्ता अशोक को साल 2009 के बलात्कार और सजा के मामले में सजा सुनाई गई थी. अशोक को 2012 में ट्रायल कोर्ट द्वारा मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा में परिवर्तित किया. अशोक ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने प्रक्रियात्मक चूक पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए मई 2022 में अशोक को जमानत दी थी.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस एसी मसीह और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने आरोपी को बरी करने का फैसला सुनाया है. पीठ ने अशोक के मामले में गंभीर कमियां पाईं, क्योंकि महत्वपूर्ण परीक्षण चरणों के दौरान उन्हें प्रतिनिधित्व की कमी थी और उनके नियुक्त कानूनी सहायता वकील अक्सर अनुपस्थित रहते थे, कार्यवाही के दौरान तीन बार बदले गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने अदालती कार्यवाही के दौरान सीआरपीसी की 313 (CrPC Section 313) की अनदेखी से नाराजगी जाहिर की है. धारा 313 के तहत, आरोपी को आरोपित साक्ष्यों की जानकारी दी जानी चाहिए थी, जिसे नजरअंदाज किया गया. इस स गलती के कारण सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बरी करने का आदेश दिया है. इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि आरोपी को उसकी समझ में आनेवाली भाषा में आदेश को पाने का अधिकार है. अदालत और वकील यह सुनिश्चित करें कि आरोपी को अदालत का आदेश समझ में आ रहा है.
वरिष्ठ वकील शुएब आलम और तलहा अब्दुल रहमान, जिन्हें अमिकस क्यूरिए के रूप में नियुक्त किया गया, ने कानूनी सहायता में सुधार के सुझाव दिए. अमिकस क्यूरिए ने कोर्ट से सिफारिश की कि जटिल मामलों में वरिष्ठ वकीलों को शामिल किया जाए, जिनके पास कम से कम दस साल का अनुभव हो.