नई दिल्ली: बॉम्बे हाईकोर्ट ने TADA के तहत महाराष्ट्र में दोषी ठहराए गए कैदियों की पैरोल को लेकर महत्वपूर्ण आदेश दिया है. बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में जस्टिस एस बी शुकरे और जस्टिस एम चांदवानी की पीठ ने स्पष्ट किया है कि आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (TADA) के तहत दोषी ठहराए गए दोषी को पैरोल पर रिहा नहीं किया जा सकता.
पीठ ने TADA के तहत दोषी ठहराए गए हसन मेहंदी शेख की ओर से दायर पैरोल की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि जिन लोगों को 'आतंकवादी अपराधों' के लिए दोषी ठहराया गया है, उन्हें महाराष्ट्र के पैरोल नियमों और प्रावधानों के अनुसार पैरोल नहीं दी जा सकती है.
पैरोल किसी भी सजायाफ्ता कैदी द्वारा उसको दी गई सजा की आधी सजा भुगतने के बाद समाज और परिवार से जुड़ने के लिए कुछ समय के लिए दी जाने वाली राहत है. जिसके तहत कुछ निश्चित समय के लिए सरकार या अदालत उस कैदी को व्यवहारिक शर्तों का पालन करने के साथ रिहा करता है. पैरोल का समय पूर्ण होने पर कैदी को पुन: जेल में सरेण्डर करना होता है. किसी कैदी को पैरोल पर रिहा करने के साथ ही नामित पैरोल अधिकारी उसकी रिहाई के बाद भी उसकी गतिविधयों पर नज़र रखते है.
पैरोल के नियम एक राज्य का क्षेत्राधिकार है. किसी भी राज्य में उसका जेल विभाग ही पैरोल के लिए शर्ते और नियम तय करता है.
TADA के तहत दोषी ठहराए गए और अमरावती केंद्रीय जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हसन मेहंदी शेख ने पैरोल के लिए प्रार्थना पत्र दायर किया था. अमरावजी जेल प्रशासन को दिए गए आवेदन में शेख ने अपनी बीमार पत्नी को देखने के लिए नियमित पैरोल की मांग की थी. जेल प्रशासन और सरकार ने यह कहते हुए शेख के आवेदन को ख़ारिज कर दिया की वह महाराष्ट्र जेल के नियमों के अनुसार पैरोल पाने के लिए 'पात्र' नहीं है.
जेल प्रशासन द्वारा पैरोल के आवेदन को खारिज करने पर हसन मेहंदी शेख ने बॉम्ब हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में याचिका दायर करते हुए मानवीय आधार पर पैरोल पर रिहा करने का अनुराध किया.
याचिका पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता हसन मेहंदी शेख की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2017 में राजस्थान के एक कैदी को लेकर दिए फैसले का हवाला दिया गया. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के एक कैदी को लेकर कहा था कि अगर एक अपराधी को टाडा प्रावधानों के तहत दोषी पाया जाता है तो भी वह नियमित पैरोल मांगने का हकदार होगा.
शेख के इस तर्क का विरोध करते हुए महाराष्ट्र सरकार की ओर से कहा गया कि प्रत्येक राज्य में पैरोल को लेकर नियम अलग अलग होते है. और सुप्रीम कोर्ट का वर्ष 2017 का फैसला राजस्थान के कैदी से जुड़ा था, इसलिए वह महाराष्ट्र में कैदियों के लिए तय नियमों द्वारा शासित नहीं हो सकता.
सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से पैरोल याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि इस तरह से आतंक के दोषी अपराधी को अगर पैरोल दी जात है तो यह एक गलत संदेश जाएगा और भविष्य में इसका दुरूपयोग बढेगा.
दोनो पक्षों की बहस सुनने के बाद जटिस्स एसबी शुकरे और जस्टिस एमडब्ल्यू चंदवानी की पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ता को टाडा के तहत दोषी ठहराया गया है और इसलिए वह नियमित पैरोल पाने का हकदार नहीं होगा.