नई दिल्ली: सह अपराधी शब्द को भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, इसलिए किसी मामले का फैसला करते समय अदालत शब्द के शाब्दिक अर्थ का उपयोग करती है. ब्लैक लॉ की डिक्शनरी में सह अपराधी एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसने किसी अन्य के साथ मिलकर अपराध करने में भाग लिया हो या किसी भी प्रकार से अपराध में सहयोग किया हो.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 133, सह अपराधी (Accomplice) को एक सक्षम गवाह के रूप में मानती है. यदि एक सह-अपराधी को गिरफ्तार किया गया और उसके बाद उसे माफ कर दिया जाए, तो उसे अनुमोदक कहते हैं. यदि अपराध के समय कोई व्यक्ति अपराध के स्थान पर अनुपस्थित हो परन्तु उसने अपराध की सलाह दी हो या उसे प्रोत्साहित किया, तो भी वो अपराध में सह अपराधी माना जाएगा.
कुछ मामलों में, व्यक्ति को किसी दबाव या डर की वजह से अपराध में साथ मजबूरी हो जाती है, ऐसी परिस्थिति में वह सह अपराधी नहीं माना जाता. जैसे-
जगन्नाथ बनाम एंपरर केस, अदालत ने कहा कि अपराध में भागीदारी कई तरीकों से की जा सकती है. इसकी दो व्यापक श्रेणियां हैं-
1.पहली डिग्री और दूसरी डिग्री का प्रधान अपराधी: पहली डिग्री का मुख्य अपराधी वह व्यक्ति होता है जो वास्तव में अपराध करता है और दूसरी डिग्री का मुख्य अपराधी वह व्यक्ति होता है जो अपराध करने के लिए प्रेरित करता है या मदद करता है.
2. तथ्य से पहले सहायक उपकरण: वो व्यक्ति जो किसी अपराध के कमीशन के लिए उकसाते हैं, खरीदते हैं या सलाह देते हैं और वे स्वयं अपराध के कमीशन में भाग नहीं लेते हैं.
3. तथ्य के बाद सहायक उपकरण: वे ऐसे व्यक्ति हैं जो अपराध करने वाले व्यक्तियों को आश्ररा देते हैं या उनकी रक्षा करते हैं, यह जानते हुए कि उन्होंने अपराध किया है. ऐसे व्यक्ति को बंदरगाह के रूप में जाना जाता है, यदि वे आरोपी को दंड या गिरफ्तारी से बचने में सहायता करते हैं. ये व्यक्ति अपराधी को बचाने या सहयोग के कारण सह अपराधी हो सकते हैं.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 133 में सह अपराधी गवाहों और साक्ष्य की स्वीकृति और स्वीकार्यता का विवरण है. यह सह अपराधी की प्रमाणित गवाही/साक्ष्य पर आरोपी को दोषी करार करने का अधिकार देती है, लेकिन चूंकि गवाह खुद उस आपराधिक कृत्य में शामिल होता है, इसलिए सह अपराधी पर पूर्णत: विश्वास नहीं किया जा सकता है.
इस धारा के अनुसार, सह अपराधी, आरोपी के विरुद्ध सक्षम साक्षी होगा, और कोई दोषसिद्धि केवल इसलिए अवैध नहीं है कि वह किसी सह अपराधी के असम्पुष्ट परिसाक्ष्य पर आधारित है. इस धारा को आकर्षित करने हेतु, एक व्यक्ति को एक सह-अपराधी होना चाहिए.
सह अपराधी द्वारा दिए गए साक्ष्य पर विश्वास न करने के पीछे कारण यह है कि वह अपने बचाव के लिए सह अपराधी के खिलाफ जा सकता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अदालत सह अपराधी के साक्ष्य पर भरोसा नहीं कर सकती है. इसलिए धारा 133 को धारा 114 के दृष्टांत 'बी' के साथ पढ़ा जाना चाहिए.
धारा 114 और 133 दोनों एक ही विषय से संबंधित दो प्रावधान हैं. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 कहती है कि अदालत यह मान सकती है कि एक सह अपराधी किसी भी क्रेडिट के योग्य नहीं है जब तक कि भौतिक विवरणों में इसकी पुष्टि न हो. वहीं, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 में कहा गया है कि एक सह अपराधी आरोपी व्यक्ति के खिलाफ एक सक्षम गवाह होगा और सह अपराधी की गवाही के आधार पर आरोपी की सजा वैध है, भले ही यह भौतिक विवरणों में पुष्ट न हो.
सह अपराधी साक्ष्य को अधिकतर आवश्यक परिस्थितियों में स्वीकार किया जाता है, क्योंकि इन मामलों में, ऐसे साक्ष्यों का सहारा लिए बिना मुख्य अभियुक्तों को दोषी ठहराना कठिन होता है. सह-अपराधी जब गवाही देता है, तो इसे दोषसिद्धि के लिए विश्वसनीय साक्ष्य नहीं माना जाता है, और इसे अन्य भौतिक साक्ष्यों से सत्यापित किया जाना चाहिए, जिसे पुष्टि कहा जाता है.
पुष्टि करने का अर्थ है किसी कथन या गवाही को तथ्यों या सबूतों की पुष्टि करके अधिक विश्वसनीय व मजबूत बनाना. संपोषक (corroborative) साक्ष्य, पहले से दिए गए साक्ष्य के लिए एक पूरक (पुष्टिकर) साक्ष्य है और उसकी पुष्टि करने के लिए प्रोन है.
यह काफी नहीं कि साक्ष्य का एक हिस्सा केवल यह सिद्ध करता है कि सह अपराधी विश्वसनीय है, बल्कि उसे अभियुक्त को फंसाना चाहिए और उसके अपराध से संबंधित होनी चाहिए.
किसी सह अपराधी की पुष्टि दो प्रकार से होती है, पहला वह पुष्टि करने वाला साक्ष्य, जो अनुमोदक की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करता है व दूसरा जो न केवल किसी अपराध के किए जाने बल्कि अपराध में अन्य अभियुक्त व्यक्तियों की मिलीभगत के भौतिक विवरणों की पुष्टि के लिए उत्पन्न होता है.
अक्सर, सह अपराधी द्वारा दिया गए साक्ष्य अविश्वास की नजर से देखा जाता है क्योंकि सह अपराधी उस अपराध में शामिल होते हैं इसलिए एक अनैतिक व्यक्ति होता है, झूठ बोलने की संभावना आदि के कारण उस पर विश्वास करना मुश्किल होता है. सह-अपराधी द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य या गवाही की पुष्टि आवश्यक है. ऐसे साक्ष्य की पुष्टि के लिए दोहरे परीक्षण की आवश्यकता होती है- प्रमाण विश्वास योग्य होना चाहिए और साक्ष्य की भौतिक रूप से पुष्टि होनी चाहिए.
प्रत्येक सक्षम गवाह एक विश्वसनीय गवाह हो यह अनिवार्य नहीं है, और आपराधिक अदालतों द्वारा अनुमोदक के साक्ष्य पर विचार करने से पहले, उसे विश्वसनीयता के परीक्षण को पूरा करना होगा, तब अदालत उसे सक्षम साक्ष्य मानती है.
सह अपराधी द्वारा दिया गए साक्ष्य अविश्वसनीय प्रतित होता है किन्तु अपराध का पता लगाने, अपराध को सुलझाने और न्याय प्रदान करने में एक अमूल्य उपकरण भी है. फलस्वरूप, वह साक्ष्य के कानून का एक अनिवार्य हिस्सा है.