नई दिल्ली: संविधान में संशोधन की प्रक्रिया सरल होने के साथ-साथ बहुत जटिल भी है। संविधान देश की मूलभूत विधि होता है, यह राज्य के शासनतंत्र को उपबंधित करता है और सामाजिक अस्तित्व के लिए एक ठोस ढाँचा प्रस्तुत करता है. किसी देश के संविधान का अपरिवर्तनशील होना उसके विकास को बाधित भी करता है.
प्रगतिशील समाज की आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने के लिए संविधान में समय-समय पर परिस्थिति के अनुकूल संशोधन की आवश्यकता पड़ती है. भारतीय संविधान में संशोधन सम्बन्धी प्रावधान भाग 20 (XX) 368वें अनुच्छेद में बताया गया है. आइये जानते है इसके बारे में विस्तार से -
जब सदन में उपस्थित होकर वोट देने वाले सदस्यों का 50% से अधिक किसी विषय के पक्ष में मतदान होता है तो उसे “साधारण बहुमत” कहा जाता है. संविधान के कुछ उपबंधों में संशोधन संसद के सामान्य बहुमत और सामान्य विधेयक के लिए विनिहित विधायी प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है. संविधान के अंतर्गत निम्नलिखित विषयों में साधारण बहुमत (simple majority) से कार्रवाई की जा सकती है. इन प्रावधानों में शामिल हैं-
नए राज्यों का गठन और मौजूदा राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन,राज्यों में विधान परिषदों का उन्मूलन या निर्माण,राजभाषा का प्रयोग ,नागरिकता - अधिग्रहण, और समाप्ति,संसद और राज्यविधानमंडलों के लिए चुनाव , पांचवीं अनुसूची - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन,छठी अनुसूची - जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन, छठी अनुसूची - जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन।
दूसरी प्रक्रिया प्रथम प्रक्रिया की तुलना में कुछ कठिन है. इस प्रक्रिया के अनुसार, संविधान के अधिकांश अनुच्छेदों में संशोधन हेतु विधेयक संसद में पुनः स्थापित हो सकते हैं.
यदि ऐसा विधेयक प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है, तो उसे राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और राष्ट्रपति की स्वीकृति से संविधान में संशोधन हो जाता है. संविधान के अधिकांश अनुच्छेदों में संशोधन इसी प्रक्रिया के अनुसार होता है. कुल मिलाकर अगर 280 सदस्यों की सहमति मिल जाए तो दोनों शर्ते पूरी हो जाएंगी। इसी को विशेष बहुमत कहा जाता है। इस प्रकार के विशेष बहुमत से मूल अधिकार (Fundamental Rights), राज्य के नीति के निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy) आदि को संशोधित किया जाता है।
इस प्रक्रिया के अनुसार, यदि संविधान में संशोधन विधेयक संसद के सभी सदस्यों के बहुमत या संसद के दोनों सदनों के 2/3 बहुमत से पारित हो जाए, तो कम-से-कम 50% राज्यों के विधानमंडलों द्वारा पुष्टिकरण का प्रस्ताव पारित होने पर ही वह राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर वह कानून बन जायेगा.ये शामिल करता ह राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया। (अनुच्छेद 54 और 55), केंद्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार। (अनुच्छेद 73 और 162) , उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 241, संविधान के भाग 5 का अध्याय 4 और भाग 6 का अध्याय 5)
आपको बता दे की सर्वोच्च न्यायालय ने आज से 50 वर्ष पूर्व 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' (24 अप्रैल, 1973) मामले में ‘आधारभूत संरचना’ (Basic Structure) का ऐतिहासिक सिद्धांत दिया था, जो संविधान में संशोधन को लेकर एक मील के पत्थर की तरह है।
ये मामला साल 1973 का है, जब केरल की तत्कालीन सरकार ने भूमि सुधार के लिए दो कानून लागू किए। इस कानून के मुताबिक, सरकार मठों की संपत्ति को जब्त कर देती। केरल सरकार के फैसले के खिलाफ इडनीर मठ के सर्वेसर्वा केशवानंद भारती ने खिलाफत की। वो सरकार के खिलाफ चले गए। ये मामला सुप्रीम कोर्ट के पास गया, कोर्ट ने कहा कि संसद कुछ मामलों में मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है जबकि कुछ मामलों में संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के "मूल ढांचे की अवधारणा" को प्रतिपादन किया। इस मामले में 13 जजों की बेंच (bench) बैठी, जिसमें 7 जज "संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा" के पक्ष में गए जबकि 6 जज विपक्ष में गए, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में बार-बार परिवर्तन हुए उससे संदेह की भी स्थिति उत्पन्न हुई व सुप्रीम कोर्ट और संसद में तनाव और गतिरोध भी उत्पन्न हुआ।