नई दिल्ली: भारतीय न्यायपालिका का वह केस जिसने यूनिफॉर्म सिविल कोड की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया और साथ ही साथ मुस्लिम वर्ग की महिलाओं के लिए एक मील का पत्थर के रूप में स्थापित हुआ, आज भी उस मामले का जिक्र विभिन्न वादों में किया जाता है. आखिर कौन थी ये शाह बानो जिसने अपने पति के खिलाफ केस लड़ा, आइये जानते है विस्तार से.
शाह बानो का कम उम्र में (वर्ष 1932) में निकाह हो गया था, उनका निकाह इंदौर के एक वकील मोहम्मद अहमद खान से हुआ. कुछ साल तक सब कुछ ठीक चलता रहा और दोनों के पांच बच्चे भी हो गए, लेकिन निकाह के करीब 14 साल बाद अहमद खान ने दूसरा निकाह कर लिया.
उस समय समझौते के तहत शाह बानो भी उनके साथ रहने लगी, लेकिन जब दोनों में खटपट शुरू हुई तो 1978 में अहमद खान ने शाह बानो को तीन बार तलाक (ट्रिपल तलाक) बोलकर तलाक दे दिया और घर से बेदखल कर दिया. तब खान ने शाह बानो से वादा किया कि वो गुजारा भत्ता के तौर पर हर महीने उसे 200 रुपये देगा, लेकिन कुछ ही महीनों बाद वो इससे मुकर गया.
गुजारा भत्ता नहीं मिलने के बाद 62 साल की शाह बानो ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया और यहीं से शाह बानो का चर्चित मामला शुरू हुआ. इंदौर की एक अदालत में मामला पहुंचा और शाह बानो ने गुजारा भत्ता के लिए 500 रुपये महीने की मांग की, पेशे से वकील अहमद खान ने कोर्ट में मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला दिया और कहा कि वो गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है.
कोर्ट ने इस दलील को तो खारिज कर दिया, लेकिन शाह बानो को महज 20 रुपये प्रतिमाह का गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया. जो शाह बानो और उनके बच्चों के लिए काफी कम रकम थी. कुछ महीनों तक चली सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने भी 1980 में अपना फैसला सुनाया और गुजारा भत्ता की रकम को 20 रुपये से बढ़ाकर 179 रुपये प्रतिमाह कर दिया.
हाईकोर्ट के बाद यह मामला 1981 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की पीठ के समक्ष रखा गया. मामला करीब चार साल तक चला और सुनवाई के दौरान शाह बानो के पति ने तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत उसने दूसरी शादी की है और पहली पत्नी को गुजारा भत्ता देना उसके लिए अनिवार्य नहीं है.
शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में साफ कहा कि तलाक के बाद बीवी को मेहर देने का मतलब यह नहीं कि उसे गुजारा-भत्ता देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि गुजारा-भत्ता तलाकशुदा पत्नी का हक है. इस मामले की सुनवाई के दौरान, शीर्ष अदालत ने सरकार से 'समान नागरिक संहिता' की दिशा में आगे बढ़ने की बात कही।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत महसूस होती है, जिस पर सरकार को विचार करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म और जाति के लोगों पर लागू होती है, जिसमें मुस्लिम भी शामिल हैं. यहां से मुस्लिम पर्सनल लॉ को लेकर बहस तेज हो गई.
आपको बता दें कि इस धारा के तहत महिलाएं अपने पूर्व पति से भरण-पोषण या गुजारा भत्ता की मांग कर सकती हैं, या इसके अलावा तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम महिला अधिनियम के तहत कुछ धन या राशि का दावा या दावा कर सकती हैं.
शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि भले ही शरिया कानून के तहत मुस्लिम पुरुष पत्नी को केवल इद्दत पीरियड (Iddat period) के दौरान ही गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य है, लेकिन सेक्युलर क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत उसे तलाकशुदा पत्नी को तब तक गुजारा भत्ता देना होगा जब तक कि वह फिर से शादी नहीं कर लेती है.
इद्दत, जो कि तलाक और हलाला के बीच की यह एक प्रथा है, की अवधि इस्लाम में 3 महीने 10 दिनों की होती है.
शाह बानो को कई सालों की कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली, लेकिन इस फैसले का मुस्लिम धर्मगुरुओं ने कड़ा विरोध किया था. राजनीतिक तौर पर भी ये मामला इतना बड़ा हो चुका था कि कुछ ही वक्त पहले सत्ता में आए राजीव गांधी की सरकार ने एक फैसला लेते हुए शाह बानो के फैसले को पलट दिया.
राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला (अधिकार और तलाक संरक्षण) विधेयक 1986 लेकर आई जिसके उपरांत सुप्रीम कोर्ट का फैसला शून्य हो गया.
तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने ‘मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986’ पारित करा दिया, लेकिन सरकार के इस फैसले के खिलाफ तत्कालीन गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद विवाह के मामले में फिर से शरीयत कानून को लागू कर दिया गया. इस तरह शाह बानो का फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर भारत के इतिहास में दर्ज हो गया.
आएये जानते है कि क्या है मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986:
शाहबानो मामले में दिए गए फैसले की मुसलमानों के बीच काफी आलोचना गई क्योंकि उनके अनुसार यह फैसला "कुरान" और "इस्लामी कानून/इस्लाम" के नियमों के विपरीत था.
इसलिए 1986 में भारत की संसद (कांग्रेस सरकार) ने मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 को अधिनियमित करने का निर्णय लिया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं और या उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करना था, जो अपने पति से तलाक ले चुकी हैं.