नई दिल्ली: क्या आप जानते हैं कि किसी केस को बिना सुनवाई के भी खत्म किया जा सकता है. अदालत के पास वक्त कम होता है और मामले ज्यादा अतः इस बोझ को कम करने के लिए ही कुछ कानून बनाए गए हैं जिसके बारे में दण्ड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code -CrPC) के तहत कई धाराओं में प्रावधान किया गया है.
बिना विचारण के आपराधिक मामले का निस्तारण यानि जब अदालत के द्वारा आपराधिक मामले को सुनवाई से पहले ही खारिज कर दिया जाता है तो उसे बिना विचारण के ही आपराधिक मामले का निस्तारण करना कहते हैं.
CrPC की निम्नलिखित धाराओं के तहत सुनवाई से पहले ही रद्द होते हैं मामले-
हर अपराध में एक निश्चित अवधि अदालत के द्वारा दी जाती है पुलिस को अभिव्यक्ति को हाजिर करने के लिए. अगर उस अवधि के अंतर्गत पुलिस अभियुक्त को हाजिर नहीं कर पाती है तो अदालत केस को रद्द कर देती है सुनवाई के बिना ही. इस धारा में अदालत के द्वारा दिए गए निश्चित समय के खत्म होने के बारे में बताया गया है. उन समयावधि को कई उपधारओं में भी बताया गया है.
जिस अपराध की सजा ये हो;
तो ऐसे में आरोपित के ऊपर लगा आरोप खत्म कर दिया जाता है.
इस धारा के तहत जब कोई मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट और उसके साथ भेजे गए दस्तावेजों की समीक्षा (Review) करने और अभियोजन पक्ष और अभियुक्त को ठीक से सुनने के बाद वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अभियुक्त के खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं, तो वह कारण दर्ज करने के बाद केस को खारिज कर सकते हैं.
परिवादी की अनुपस्थिति (Absence of complainant), इसके अनुसार जब मामले की सुनवाई शुरू होती है और अदालत के द्वारा तय किए गए किसी दिन आरोप लगाने वाला अदालत में हाजिर नहीं होता है और लगाए गया अपराध का आरोप भी कानूनी रूप से जटिल या संज्ञेय नहीं है, तो ऐसे में मजिस्ट्रेट केस को खारिज कर आरोपित को सभी आरोपों से बरी कर देते हैं.
कई बार ऐसा होता है कि आरोप लगाने वाले आरोप को वापस ले लेते हैं. जब भी कोई ऐसी स्थिति सामने आती है कि आरोप लगाने वाला अपना आरोप वापस लेना चाहता है तो मजिस्ट्रेट को अगर लगता है कि परिवादी की शिकायत वापस लेने का निर्णय सही है तब मजिस्ट्रेट बिना आरोपी की स्वीकृति के परिवादी की शिकायत (परिवाद) को खारिज कर देगा और आरोपी या आरोपियों को दोषमुक्त कर देगा.
इस धारा के तहत कुछ मामलों में कार्यवाही रोक देने की न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियों के बारे में बताता है. जिसके तहत कोई भी समन (Summon) केस पुलिस रिपोर्ट से या मजिस्ट्रेट के सूचना ( Information to Magistrate) पर बना है.
तो ऐसे में प्रथम वर्ग के मजिस्ट्रेट या मुख्य मजिस्ट्रेट, चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से पहले ही मंजूरी लेकर किसी भी स्टेज में फैसला सुनाए बिना ही किसी केस की सुनवाई पर रोक लगा सकते हैं. इतना ही नहीं वो आरोपित को दोषमुक्त भी कर सकते हैं या छोड़ सकते हैं.
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 300 एक व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए दोबारा सुनवाई कर उसे सजा देने के मामले पर तब रोक लगाती है जब पहली सुनवाई के दौरान उसे बरी या सजा सुनाया जा चुका होता है.
सीआरपीसी की धारा 306 के तहत अगर किसी व्यक्ति पर किसी के साथ किसी अपराध में शामिल होने का आरोप है और ऐसे में वह व्यक्ति सरकारी गवाह बनकर सारा सच बोलना चाहता है तो मजिस्ट्रेट के द्वारा धारा 306 और 307 के तहत आरोपित को दोषमुक्त कर दिया जाता है और अगर मजिस्ट्रेट को जरुरी लगे कि सुनवाई होनी चाहिए तो सुनवाई भी कराई जा सकती है.
ऐसा मामला जिसमें दो पार्टी हैं एक आरोपी और दूसरा आरपित दोनों आपस में बातचीत कर कर या हर्जाना देकर सुलह करना चाहते हैं तो कर सकते हैं. चाहे तो केस को कोर्ट के इजाजत के बाद खत्म कर सकते हैं और चाहे तो कोर्ट के इजाजत के बिना ही केस को खत्म कर सकते हैं. इसके लिए यह भी देखना जरुरी है कि मामला कैसा है.
इस धारा के तहत किसी मामले का भारसाधक कोई लोक अभियोजक (Public Prosecutor) या सहायक लोक अभियोजक (Assistant Public Prosecutor) अदालत के मंजूरी पर फैसला आने से पहले अपने आप को प्रॉसिक्यूशन (Prosecution) से हटा (Withdraw) सकता है.