नई दिल्ली: कई बार आपने सुना होगा कि किसी नेता को या किसी नामचीन शख्सियत को अरेस्ट कर लिया गया वह भी बिना किसी वारंट के. इस तरह की कार्यवाही पुलिस द्वारा शक के आधार पर किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध की जा सकती है. यहां आपको बता दे कि इस तरह की गिरफ़्तारी विशेष परिस्थितियों में ही की जाती है ताकि आने वाले समय में उस व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले अपराध को रोका जा सके.
पुलिस को जब शक होता है कि उस व्यक्ति के बाहर रहने से कोई अपराध हो सकता है तब ऐसी स्थिति में वह निवारक नजरबंदी के तहत सम्बंधित व्यक्ति को अरेस्ट कर लेती है. यह एक्शन निवारक निरोध अधिनियम (Preventive Detention Act), 1950 के तहत लिया जाता है.
निवारक निरोध अधिनियम (Preventive Detention Act) भारत सरकार द्वारा पारित किया गया एक अधिनियम था, जिसे निवारक निरोध कानून कहा जाता है. यह कानून स्वतंत्रता के बाद 1950 में बनाया गया था.
निवारक निरोध कानून का तात्पर्य 'बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के घर में नजरबंद करना है. इस तरह की नजरबंदी का उद्देश्य अपराधी को दंडित करना नहीं होता बल्कि अपराध करने से रोकना होता है.
सामान्यतः निवारक निरोध कानून उन लोगों पर ही लागू होता है, जिसने कभी कोई बड़ा अपराध नहीं किया है लेकिन, बड़ा अपराध करने के बारे में सोच रहा है इस तरह के व्यक्ति के बारे में पुलिस को खबर लगने पर पुलिस “ निवारक निरोध” कानून का प्रयोग करती है.
पुलिस अपने शक के आधार पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है वह भी बिना किसी वारंट के ताकि आने वाले समय में उस व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले अपराध को रोका जा सके.
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह गिरफ्तारी से अलग होती है क्योंकि एक ‘गिरफ्तारी’ तब की जाती है जब किसी व्यक्ति पर अपराध कारित करने का आरोप लगाया जाता है.
निवारक निरोध के मामले में, एक व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है क्योंकि उसे केवल कुछ ऐसा करने से प्रतिबंधित किया जाता है जिससे विधि-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है, यानि वह कोई अपराध कर सकता है. हमारे संविधान का अनुच्छेद 22 कुछ मामलों में गिरफ्तारी एवं निरोध से संरक्षण प्रदान करता है
हमारे देश में इमरजेंसी यानी आपातकाल के दौरान भी इस कानून का जमकर इस्तेमाल किया गया था. यह आपातकाल 1975 से लेकर साल 1977 तक चला था. उस दौरान देश में अव्यवस्था के नाम पर संविधान और कानून में अपने हिसाब से बदलाव किए गए. आपातकाल के पहले ही हफ्ते में संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को समाप्त किया गया.
आपातकाल के पहले हफ्ते देशभर में करीब 15 हजार लोगों को जेल पहुंचा दिया गया. परिवार वालों को अपने रिश्तेदार की भनक तक नहीं लग रही थी कि वे कहां हैं. ऐसा कर सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों पर रोक लगा दिया था.
अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीनने के लिए जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को निलंबित किया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) तो पहले से ही लागू था जिसमें कई बदलाव किए गए.
1.दंडात्मक निरोध, जिसका अर्थ है आपराधिक अपराध के लिए सजा के रूप में निरोध. यह तब होता है जब वास्तव में कोई अपराध किया जाता है, या उस अपराध को करने का प्रयास किया जाता है.
2. निवारक निरोध, यानि किसी व्यक्ति को अपराध करने या उससे जुड़े होने की किसी भी संभावना को रोकने के लिए पहले से कैद करना. इसलिए, निवारक निरोध एक ऐसी कार्रवाई है जो इस आशंका के आधार पर की जाती है कि संबंधित व्यक्ति कुछ गलत कार्य कर सकता है.'निवारक निरोध' को 'प्रशासनिक निरोध' भी कहा जाता है, क्योंकि यह निरोध कार्यपालिका द्वारा निर्देशित होता है और निर्णय लेने का अधिकार विशेष रूप से प्रशासनिक या प्रबंधकीय प्राधिकरण पर होता है.
.भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 (मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ अधिकार) मनमानी गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है.. संविधान का अनुच्छेद 22(1) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए और उसे अपनी पसंद के कानूनी व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार है.
.अनुच्छेद 22(2) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए , और बिना मजिस्ट्रेट के अधिकार के उस अवधि से अधिक व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है.
.अनुच्छेद 22(3) में निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लिए गए व्यक्ति पर , अपवाद के रूप में अनुच्छेद 22 (2 ) लागू नहीं होता है.
.अनुच्छेद 22(4) में बताया गया है कि निवारक निरोध का प्रावधान करने वाला कोई भी कानून किसी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक की अवधि के लिए तब तक हिरासत में रखने का अधिकार नहीं दे सकता, जब तक कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों वाला एक सलाहकार बोर्ड यह रिपोर्ट नहीं करता है कि निरोध के पर्याप्त कारण हैं.
.अनुच्छेद 22(5) यह सुनिश्चित करता है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को हिरासत में लिए जाने के कारणों के बारे में सूचित करने और आदेश के खिलाफ आवेदन करने का अधिकार है.
.अनुच्छेद 22(6) में यह स्पष्ट किया गया है कि हिरासत में लिया गया अधिकारी उस जानकारी को रोक नहीं सकता है जो हिरासत में लिए गए व्यक्ति के लिए प्रतिनिधित्व करने के लिए आवश्यक है, सिवाय इसके कि जब ऐसी जानकारी सार्वजनिक हित के विरुद्ध हो.
.अनुच्छेद 22(7) के तहत संसद को उन परिस्थितियों और अधिकतम अवधि को निर्धारित करने की शक्ति प्रदान करता है जिसके लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में रखा जा सकता है, और सलाहकार बोर्ड द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया को निर्धारित करने का अधिकार संसद के पास है.
गौतम नवलखा बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हम मानते हैं कि अदालतें उचित मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167 के तहत घर में नजरबंदी (हाउस अरेस्ट) का आदेश दे सकती हैं. कोर्ट हाउस अरेस्ट का आदेश देने के लिए उम्र, स्वास्थ्य की स्थिति और आरोपियों के पहले व्यवहार, अपराध की प्रकृति, हिरासत के अन्य रूपों की आवश्यकता और हाउस अरेस्ट की शर्तों को लागू करने की क्षमता जैसे मानदंडों पर विचार कर सकता है.
गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत अपराधों में, Crpc की धारा 167 के तहत 15 दिन की अवधि को संशोधित कर 30 दिन कर दिया गया है.
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 151
इसके अनुसार, एक पुलिस अधिकारी किसी भी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के अधिकार के बिना या बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है यदि उसे ऐसी कोई सूचना मिलती है कि व्यक्ति संज्ञेय प्रकृति का कोई अपराध करने की संभावना रखता है और जो नहीं किया जा सकता है अन्यथा रोका.