नई दिल्ली: हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मॉडल जेल मैनुअल, 2016 में पैरोल एवं फर्लो से संबंधित दिशा-निर्देशों को संशोधित किया है. पैरोल एवं फर्लो को जेल अधिनियम 1894 के तहत सृजित किया गया है. पैरोल किसी कैदी की शर्तों का पालन करने के साथ-साथ समाज में वापस लौटने और परिवार और दोस्तों के साथ मेलजोल का विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए कुछ प्रतिबंधों का पालन करने की शर्तों पर समय से पहले सशर्त अस्थायी रिहाई है।
यदि पैरोल पर छूटे कैदी उन शर्तों का उल्लंघन करते हैं जिन पर उन्हें रिहा किया गया है, तो उन्हें वापस जेल में लौटाया जा सकता है। आइये जानते है विस्तार से कि क्या है पैरोल और इससे जुड़े नियम -
पैरोल आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू है. पैरोल आमतौर पर अच्छे व्यवहार के बदले में एक सजा की समाप्ति से पहले एक कैदी की अस्थायी या स्थायी रिहाई को कहा जाता है. सरल भाषा में, जब कोई व्यक्ति अपराध करता है तो पुलिस उसको गिरफ्तार कर लेती है. गिरफ्तारी के बाद पुलिस 24 घंटे के अंदर उसको मजिस्ट्रेट या कोर्ट में हाजिर करती है, कोर्ट में अपराध के आधार पर मजिस्ट्रेट सजा सुनाते हैं. साथ ही उस व्यक्ति या अपराधी को जेल भेज देती है.
यह एक कैदी को सजा के निलंबन के साथ रिहा करने की व्यवस्था है। इसमें कैदी की रिहाई सशर्त होती है जो आमतौर पर कैदी के व्यवहार पर निर्भर करती है, जिसमें समय-समय पर अधिकारियों को रिपोर्टिंग की आवश्यकता होती है। पैरोल का अनुदान जेल अधिनियम, 1894 और जेल अधिनियम, 1900 के तहत होता है.
पैरोल एक अधिकार नहीं है, इसे एक विशिष्ट कारण के लिये कैदी को दिया जाता है जैसे- परिवार में किसी अपने की मृत्यु या करीबी रिश्तेदार की शादी आदि। इसमें एक कैदी को पैरोल देने से मना भी किया जा सकता है यदि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट हो जाता है कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं है।
फर्लो जेल से एक निश्चित अवधि के लिए दी गई छुट्टी होती है, फर्लो एक कैदी का अधिकार होता है और उसे समय-समय पर प्रदान किया जाता है। कभी-कभी यह बिना किसी कारण के उसके परिवार के साथ संपर्क बनाए रखने के आधार पर भी प्रदान किया जाता है। फर्लो हमेशा लंबी अवधि के कारावास के मामलों में दी जाती है।
धारा 432 के तहत सजा को निलंबित करने या माफ करने की शक्ति से संबंधित है. सुनील फूलचंद शाह बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि "पैरोल सजा के निलंबन के बराबर नहीं है"। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पैरोल को धारा के तहत कवर नहीं किया जा सकता है.
1-कस्टडी पैरोल - इसे आम तौर पर आपातकालीन स्थितियों में कैदियों को कस्टडी पैरोल प्रदान की जाती है. विदेशी कैदियों और मृत्युदंड से दंडित किए गए लोगों को छोड़कर, सभी अपराधियों को 14 दिनों के लिए आपातकालीन पैरोल दी जा सकती है.
2-नियमित पैरोल - इसमें कैदी को कुछ नियम और शर्तों के आधार पर रिहा किया जाता है. पैरोल पर रिहा किए जा रहे कैदी को पैरोल आदेश में वर्णित किए गए नियमों का अनिवार्य रूप से पालन करना होता है. इसलिए नियमित पैरोल को विवेकाधीन पैरोल भी कहा जाता है.
एक दोषी को छूट में बिताए गए किसी भी समय को छोड़कर कम से कम एक साल जेल में रहना चाहिए. ,साथ हि अपराधी का व्यवहार समान रूप से अच्छा होना चाहिए, अपराधी को पैरोल की अवधि के दौरान कोई अपराध नहीं करना चाहिए, और इसके साथ हि अपराधी को अपनी पिछली रिहाई के किसी भी नियम और प्रतिबंध को नहीं तोड़ना चाहिए.
1894 के जेल अधिनियम और 1900 के कैदी अधिनियम के तहत अधिनियम कानून भारत में पैरोल को नियंत्रित करते हैं. प्रत्येक राज्य में पैरोल दिशा-निर्देशों का अपना सेट होता है, जो एक-दूसरे से थोड़ा भिन्न होता है. जेल (बॉम्बे फरलो और पैरोल) नियम 1959, कारागार अधिनियम, 1984 की धारा 59 (5) के तहत जारी किए गए थे.
यदि अपराधी का व्यवहार जेल में अच्छा नहीं है ,इसके अलावा इसके पहले भी अगर उसने पैरोल पर आवेदन किया है और उसे पैरोल भी मिल गया था लेकिन उसने पैनल के नियम और शर्तों का पालन नहीं किया तो ऐसे परिस्थिति में उसका पैरोल रद्द किया जाएगा।
यदि अपराधी ने बलात्कार के बाद हत्या किया हो या फिर देशद्रोह जैसे मामले में उसे सजा हुई हो, और यदि अपराधी को किसी प्रकार कि आतंकवादी गतिविधि जैसे अपराध के लिए सजा हुई हो तो पैरोल नहीं दी जाती है। इसके अलावा देश से जुड़े विभिन्न प्रकार के सुरक्षा मामलों में अगर अपराधी के सजा हुई तो उसे कोर्ट की तरफ से पैरोल नहीं दिया जा सकता है।
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाथ ही में एक निर्णय में कहा कि पैरोल पर रिहाई के आवेदन को केवल इस आशंका पर खारिज नहीं किया जा सकता है कि आरोपी प्रतिबंधित वस्तुओं की बिक्री में शामिल हो सकता है या शांति भंग कर सकता है।
अदालत पंजाब अच्छे आचरण वाले कैदी (अस्थायी रिहाई) अधिनियम, 1962 की धारा 6 के तहत आवेदन की अस्वीकृति को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। आठ सप्ताह की पैरोल पर रिहाई के लिए याचिकाकर्ता के आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि यदि याचिकाकर्ता पैरोल पर रिहा होने पर वह नशीले पदार्थ बेचने की गतिविधियों में शामिल हो सकता है, जिससे शांति भंग होने की आशंका के अलावा युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।