हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक विवाद का निपटारा करते हुए पति को पत्नी को दो करोड़ रूपये गुजारा भत्ते देने के आदेश दिए है. सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता तय करने को लेकर कहा कि भरण-पोषण या स्थायी गुजारा भत्ता दंडात्मक नहीं होना चाहिए, बल्कि पत्नी के लिए एक सभ्य जीवन स्तर सुनिश्चित करने के उद्देश्य से होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए पति-पत्नी के बीच वैवाहिक संबंध को कानूनी तौर पर समाप्त करने के निर्देश दिए हैं. वैवाहिक विवाद के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पति को एकमुश्त गुजारा भत्ता के तौर पर दो करोड़ की राशि पत्नी को देने को कहा है. राशि को देने के लिए चार महीने के समय भी दिया है.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रशांत कुमार की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि दोनों पक्ष आपसी सहमति से अपने विवाह को रद्द करने के लिए तैयार हैं, साथ ही दोनों पक्षों के पुनर्मिलन की कोई संभावना नहीं बची है और विवाह अब केवल कागजों पर ही रह गया है. दोनों पक्ष पिछले नौ सालों से अलग-अलग रह रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा,
"मामले में पत्नी के हित को एकमुश्त समझौते के माध्यम से संरक्षित करने की आवश्यकता है, साथ ही यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय में निहित विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने और पक्षों के बीच विवाह को खत्म करने का उपयुक्त मामला है."
हम पक्षों की वित्तीय स्थिति के विवरण पर विचार करते हैं, हम वैवाहिक विवादों में एकमुश्त निपटान के निर्णय और निर्धारण के लिए निर्धारित कानून पर चर्चा करना आवश्यक समझते हैं.
अदालत ने कहा,
यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि भरण-पोषण या स्थायी गुजारा भत्ता दंडात्मक न हो बल्कि पत्नी के लिए सभ्य जीवन स्तर सुनिश्चित करने के उद्देश्य से हो.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने परमानेंट सेटलमेंट के तौर पर एलिमनी तय करने के लिए अपने एक पुराने मामले रजनेश बनाम नेहा और अन्य 10 मामले का जिक्र किया है. रजनेश बनाम नेहा और अन्य 10 मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों वाली पीठ ने भरण-पोषण की राशि तय करने के लिए व्यापक मानदंडों और कारकों पर विस्तार से चर्चा की है. यह निर्णय वैवाहिक विवादों में भरण-पोषण की राशि निर्धारित करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से स्थायी गुजारा भत्ता पर ध्यान केंद्रित करता है. इसका प्राथमिक उद्देश्य दूसरे पति या पत्नी को दंडित करने के बजाय, विवाह की विफलता के कारण आश्रित पति या पत्नी को निराश्रित होने से बचाना है. न्यायालय इस बात पर जोर देता है कि भरण-पोषण राशि की गणना के लिए कोई निश्चित फॉर्मूला नहीं है; इसके बजाय, इसे विभिन्न कारकों के संतुलित विचार पर आधारित होना चाहिए;
उपरोक्त बिंदुओं पर विचार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय की शक्ति का प्रयोग करते हुए तलाक का आदेश दिया. वहीं एकमुश्त गुजारा भत्ते को तय करने को लेकर पति को 2 करोड़ राशि देने के निर्देश दिए हैं. पत्नी को ये राशि देने के लिए पति को चार महीने का समय भी दिया गया है.
सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट ऑर्डर में कहा गया है कि वर्तमान मामले में, दोनों पक्ष विवाह के बाद एक वर्ष से भी कम समय तक साथ रहे और पिछले नौ वर्षों से अलग-अलग रह रहे हैं. अपीलकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों की प्रकृति गंभीर है, क्योंकि उसके अनुसार, प्रतिवादी द्वारा उसके साथ क्रूरता की गई, उसे चोट पहुंचाई गई और दहेज की मांग की गई, और उसने अपने पति के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई भी शुरू की है. अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच सुलह के कई प्रयास न्यायालयों द्वारा विभिन्न चरणों में किए गए हैं, लेकिन सभी प्रयास निरर्थक रहे हैं. पक्षों के बीच कई कानूनी कार्यवाही लंबित हैं और निकट भविष्य में संभवतः समाप्त होने की संभावना नहीं दिखती है. इस तथ्यात्मक स्थिति को दोनों पक्षों ने इस न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया है और उन्होंने आपसी सहमति से यह भी तय किया है कि उनका पति और पत्नी के रूप में अपने मिलन को जारी रखने का कोई इरादा नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने हितेश भटनागर बनाम दीपा भटनागर में कहा कि अदालत द्वारा विवाह के अपूरणीय विघटन के आधार पर विवाह को तभी खत्म किया सकता है, जब ऐसा प्रतीत हो कि विवाह को बचाना असंभव हो गया है, पुनर्मिलन के सभी प्रयास विफल हो गए हैं और न्यायालय को किसी भी उचित संदेह से परे यह विश्वास हो गया है कि विवाह के बने रहने और सफल होने की कोई संभावना नहीं है.
साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अशोक हुर्रा बनाम रूपा बिपिन जावेरी मामले का भी जिक्र किया जिसमें अदालत ने यह टिप्पणी की थी कि सभी आवश्यक कारकों के संचयी प्रभाव पर विचार करने के बाद तथा यह देखते हुए कि विवाह पक्षकारों के बीच लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों के कारण समाप्त हुआ है, और इस प्रकार पक्षकारों की पीड़ा को लंबे समय तक जारी रखने तथा उनके संबंधों के अपरिहार्य अंत को स्थगित करने से कोई उपयोगी उद्देश्य, भावनात्मक या व्यावहारिक, प्राप्त नहीं होगा, न्यायालय विवाह विच्छेद (विवाह समाप्त करने) का आदेश दे सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शीर्ष न्यायालय के तौर पर उन्होंने पिछले कई वर्षों में अनेक फैसलों के माध्यम से भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विवाह को समाप्त करने के लिए अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया है, जहां यह देखा गया कि विवाह पूरी तरह से समाप्त हो चुका है, अव्यवहारिक है, सुधार से परे है, भावनात्मक रूप से नष्ट हो चुका है और पूरी तरह से टूट चुका है, भले ही मामले के तथ्यों के आधार पर लागू कानून में प्रदत्त तलाक के लिए कोई आधार नहीं बनता है. फिर अदालत ने पिरस्थितियों को ध्यान में रखकर अदालत ने विवाह को समाप्त करने का फैसला सुनाया है.
वहीं, एक मुश्त एलिमनी के तौर पर पति को 2 करोड़ रूपये चार महीने के भीतर पत्नी को देने के निर्देश दिए हैं.
साल 2015 में दंपत्ति की शादी हुई. शादी के साल भर बाद ही पत्नी ने पति के खिलाफ गौतम बुद्ध नगर में शिकायत दर्ज कराई. पुलिस ने शिकायत को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए, 323, 504 और दहेज निषेध अधिनियम, 19612 की धारा 3और 4 के तहत दर्ज की.
पति ने पत्नी की FIR को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों में मध्यस्थता के आदेश देकर गिरफ्तारी पर रोक लगा दी.
इसके बाद पत्नी ने न्यायिक मजिस्ट्रेट, गौतम बुद्ध नगर से घरेलु हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 12 के तहत अंतरिम गुजारा भत्ता की मांग की. इस मामले में अदालत ने पति को 35,000 रूपये का गुजारा भत्ता देने के निर्देश दिए. इस फैसले को दोनों पार्टी ने अलग-अलग अपील के माध्यम से चुनौती दी.
पत्नी की याचिका पर ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने पुराने फैसले में संशोधन कर पति को 45,000 रूपये पत्नी को, 55,000 रूपये बेटी को देने के निर्देश दिए. वहीं, पति की याचिका खारिज कर दी गई.
मामला दोबारा से इलाहाबाद हाईकोर्ट में आया. उच्च न्यायालय ने पुन: मध्यस्थता कराने के निर्देश दिए, जिसे विफल कर दिया. इस बीच पति ने मामले को तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर करने का निवेदन किया गया जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया. तब तक इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति की याचिका को खारिज कर दिया. मामला तीस हजारी कोर्ट से दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष आया, आखिर में यह वाद सुप्रीम कोर्ट के पास आया तब सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को अलग होने की स्वीकृति देने के साथ-साथ एकमुश्त एलिमनी भी तय की.
Case Title: किरण ज्योति मनी बनाम अनीश प्रमोद पटेल