नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने lease deed के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक हाईकोर्ट को किसी lease deed को बदलने या संशोधित करने की कोई पॉवर नही है.
Justice Ajay Rastogi और Justice Bela M Trivedi की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए पंजीकरण अधिनियम 1908 की धारा 17 के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत लीज डीड में बदलाव या संशोधन नहीं कर सकते.
पीठ के अनुसार जब लीज डीड को पहले ही निष्पादित किया जा चुका है और लेन-देन भी समाप्त हो गया है, तो इसे बदलने या संशोधित करने के लिए हाईकोर्ट नही जाया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट Gwalior Development Authority की ओर से मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के पक्ष lease deed जारी करने का आदेश दिया था, जबकि lease deed पहले से ही execute हो चुकी थी.
मामले के अनुसार Gwalior Development Authority ने एक विज्ञापन जारी करते हुए कई भूखंडो के लिए निविदा आमंत्रित की. विज्ञापन के अनुसार प्रतिवादी Bhanu Pratap Singh ने भी 27,887.50 वर्ग मीटर के भूखंड के लिए निविदा में शामिल हुआ. भानुप्रतापसिंह ने 725 रूपये प्रति वर्ग मीटर के प्रस्ताव के साथ निविदा में बोली लगाई और सबसे ज्यादा बोली होने के चलते उसे निविदा का विजेता माना गया.
निविदा में सफल बोलीकर्ता होने के चलते Gwalior Development Authority ने उसे सूचित किया कि उसके पक्ष में 27887.50 वर्ग मीटर के भूखंड को ₹2.06 करोड़ के मूल्य पर पट्टे पर देने का निर्णय लिया गया है और प्रतिवादी को अक्टूबर की अवधि तक ₹1,91 करोड़ की राशि जमा करने का निर्देश दिया गया.
निविदा की शर्तो के अनुसार इस भूखंड पर नियमानुसार निर्माण कार्य दो वर्ष की अवधि में पूर्ण किया जाना था एवं किस्त जमा न करने पर जमानत राशि जब्त करने का प्रावधान था.
मामले में प्रतिवादी ने सितंबर 1997 से अगस्त 2005 तक अंतिम किस्त तक राशि जमा कराता रहा. प्रतिवादी 31 अक्टूबर 1999 तक बोली दस्तावेज की शर्तों के अनुसार किश्त जमा करने में विफल रहने के बावजूद और अंतिम राशि जमा कर दी गई थी.
निविदा की शर्तो का पालन नही करने के बावजूद Gwalior Development Authority द्वारा बोली को रद्द करने या प्रतिवादी द्वारा जमा की गई राशि को जब्त करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई.
Gwalior Development Authority ने बिना किसी आपत्ति के प्रतिवादी भानुप्रतापसिंह के पक्ष में पट्टा जारी कर दिया गया.
साढे तीन साल के बाद प्रतिवादी भानुप्रतापसिंह ने पूर्व में जारी की गयी lease deed के अलावा शेष भूखंड 9625.50 sq. meters का भी उसके पक्ष में lease deed जारी करने का अनुरोध करते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गयी.
Madhya Pradesh High Court ने प्रतिवादी की याचिका के अनुरोध को स्वीकार करते हुए उसके पक्ष में शेष भूखंड के लिए lease deed जारी करने का आदेश दिया.
Madhya Pradesh High Court के फैसले असंतुष्ट Gwalior Development Authority ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर चुनौती दी.
Supreme Court में दायर अपील में Gwalior Development Authority ने दलीले पेश करते हुए कहा कि 18262.89 वर्ग मीटर के लीज डीड को पार्टियों के बीच बिना किसी आपत्ति के और पार्टियों की सहमति से 29 मार्च, 2006 को निष्पादित किया गया था.
Gwalior Development Authority ने कहा कि नीलामी की कार्यवाही जो पहली बार 13 मार्च, 1997 को शुरू की गई थी, अंततः लीज डीड के निष्पादन में समाप्त होने के साथ ही लेनदेन अंतिम रूप से प्राप्त हो गया था.
Authority ने कहा कि जब एक बार निविदा के अनुसार लीज डीड के निष्पादन समाप्त हो गया तो प्रतिवादी के पास हाईकोर्ट जाने और उस निविदा को फिर से खोलकर लीज डीड में बदलाव करने का कोई अधिकार नही है.
Gwalior Development Authority ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि चूकि पहली बार में प्रतिवादी ने 27,887.50 वर्ग मीटर में से 18262.89 वर्ग मीटर की लीज डीड को आपसी सहमति से प्राप्त किया था.
ऐसे में हाईकोर्ट अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए 3 से 4 बाद कैसे शेष 9625.50 वर्ग मीटर भूखंड के लिए lease deed जारी करने करने का आदेश दे सकता है.
जबकि इतनी अवधि के बाद उक्त भूखंड की संशोधित में बड़ा बदलाव आ चुका है और किसी कानून में इसकी अनुमति नही है.
अपील का विरोध करते हुए प्रतिवादी भानुप्रतापसिंह ने सुप्रीम कोर्ट में दलील देते हुए कहा कि Gwalior Development Authority ने सर्वाधिक बोली लगाए जाने के चलते ही उसके पक्ष में 27887.50 वर्ग मीटर के लिए निविदा जारी करते हुए 25 अगस्त, 2005 की अंतिम किस्त भी स्वीकार की थी.
प्रतिवादी ने कहा कि निविदा कुल 27887.50 वर्ग मीटर के लिए जारी की गयी थी जिसे आपसी सहमति से दो हिस्सो में बांटा गया था. जिसमें से पहले हिस्से के रूप में 18262.89 वर्ग मीटर की लीज डीड प्राप्त हो गयी, लेकिन शेष 9625.50 वर्ग मीटर हिस्से के लिए अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट में जाना पड़ा.
दोनो पक्षो की दलीले सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने Gwalior Development Authority को भी इस बात के लिए फटकार लगाई कि निविदा के अनुसार देय तिथी के 8 साल बाद किश्त जमा कराने की अनुमति देकर उसने ही गलती की है.
सुप्रीम कोर्ट ने Gwalior Development Authority को इस बात के लिए भी फटकार लगाई की निविदा की शर्ते तोड़ने और डिफ़ॉल्ट पर होने पर प्रतिवादी का दावा जब्त नहीं करने की अनुमति क्यों दी.
सुप्रीम कोर्ट ने Gwalior Development Authority के रवैये को अपनी शक्ति के स्पष्ट दुरूपयोग बताते हुए कहा कि यह न केवल संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, बल्कि प्रतिवादी के पक्ष में अनुचित तरीके से पक्ष लेने की बू भी है, जिससे हमेशा बचा जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश हाईकेार्ट को लेकर कहा कि इस मामले में दोनो पार्टियों ने 29 मार्च, 2006 को लीज डीड को पहले ही निष्पादित कर दिया है, तो यह हाईकेार्ट के लिए अनुच्छेद 226 के तहत इसे बदलने या संशोधित करने का कोई अधिकार नही है.
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने Gwalior Development Authority को राहत देते हुए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के 21st April, 2011 के फैसले को रद्द कर दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही प्रतिवादी भानुप्रतापसिंह को एक और मौका देते हुए भूमि के शेष क्षेत्र को खरीदने का पहला अवसर प्रदान करने के निर्देश दिए है. जो 13 मार्च, 1997 को 27887.50 वर्ग मीटर के लिए जारी निविदा के अनुसार मूल रूप से नीलामी के लिए रखी गई भूमि का एक हिस्सा था.
सरकार द्वारा अधिसूचित वर्तमान प्रचलित सर्किल रेट पर प्रतिवादी द्वारा स्वीकार्य होने की स्थिती में Gwalior Development Authority को आवेदन पर विचार करने का निर्देश दिया है.