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विवाहित जोड़े के बीच दाम्पत्य अधिकारों की बहाली नहीं, SC ने सुनाया फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री पारित होने के बाद एक वर्ष या उससे अधिक की समय के लिए पति-पत्नी के बीच दाम्पत्य अधिकारों (Conjugal Rights) को पुर्नस्थापित नहीं की गई है, तो इस आधार पर तलाक की मांग की जा सकती है. 

सांकेतिक चित्र

Written by Satyam Kumar |Published : July 15, 2024 3:47 PM IST

Conjaugal Rights over Divorce Decree: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पति की तलाक की मांग को स्वीकार किया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री पारित होने के बाद एक वर्ष या उससे अधिक की समय के लिए पति-पत्नी के बीच दाम्पत्य अधिकारों (Conjugal Rights) को पुर्नस्थापित नहीं की गई है, तो इस आधार पर तलाक की मांग की जा सकती है. पति ने सुप्रीम कोर्ट में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी. वहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता (पति) को 30 लाख रूपये की गुजारा भत्ता देने के आधार पर तलाक की याचिका को स्वीकार किया है.

दामपत्य अधिकारों की बहाली नहीं होने पर तलाक की मांग: SC

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की.

अदालत ने कहा,

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हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1ए)(ii) के तहत यह प्रावधान है कि तलाक की याचिका इस आधार पर प्रस्तुत की जा सकती है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री पारित होने के बाद एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए पति-पत्नी के बीच दाम्पत्य अधिकारों (Conjual Rights) को पुर्नस्थापित नहीं की गई है.

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को संशोधित कर परित्याग के आधार अपीलकर्ता को तलाक की इजाजत दे दी है. परिणामस्वरूप, अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच 25 मार्च 1999 को संपन्न विवाह को एचएम अधिनियम की धारा 13(1)(आईबी) के तहत तलाक के आदेश दिया जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि उपरोक्त आदेश तभी लागू होंगे जब अपीलकर्ता अपनी पत्नी को 30 लाख रूपये की राशि भुगतान करेगा. अदालत ने राशि देने के लिए अपीलकर्ता को तीन सप्ताह का समय दिया है.

पूरा मामला क्या है?

अपीलकर्ता पति और पत्नी (प्रतिवादी) का विवाह 25 मार्च 1999 को हुआ था.  विवाह से दो बच्चे हैं. दोनों ही वयस्क हैं. पति-पत्नी के बीच मतभेदों के चलते कई मुकदमे हुए. वैवाहिक कलह पहली बार 2006 में शुरू हुई, जिसके कारण अपीलकर्ता ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955  की धारा 9 के तहत याचिका दायर की.

15 मई 2013 के फैसले और डिक्री द्वारा, विद्वान अतिरिक्त सिविल जज (सीनियर डिवीजन), बरनाला ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली का एक डिक्री पारित किया, जिसके तहत पत्नी को तीन महीने के भीतर अपीलकर्ता के साथ रहने के आदेश दिए. अदालत के फैसले का पालन नहीं किया गया.

अपीलकर्ता ने क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक के डिक्री की मांग करते हुए बरनाला में पारिवारिक न्यायालय के समक्ष एचएम अधिनियम की धारा 13 के तहत एक याचिका दायर की. वैवाहिक अधिकारों की बहाली के डिक्री से व्यथित होने के कारण, वर्ष 2013 में ही, प्रतिवादी (पत्नी)  ने पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय के समक्ष अपील की. 19 फरवरी 2015 के फैसले द्वारा अपील को खारिज कर दिया गया, और वैवाहिक अधिकारों की बहाली के डिक्री की पुष्टि की गई.

1 अगस्त 2016 को बरनाला के पारिवारिक न्यायालय  ने अपीलकर्ता द्वारा दायर तलाक की याचिका को स्वीकार कर लिया और अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच विवाह को भंग कर दिया. प्रतिवादी ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर करके तलाक के आदेश को चुनौती दी. 4 अक्टूबर 2019 के विवादित निर्णय द्वारा, उच्च न्यायालय ने तलाक के आदेश को रद्द कर दिया है. प्रतिवादी ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत एक याचिका दायर की, जिसमें अपीलकर्ता के खिलाफ भरण-पोषण का दावा किया गया.

अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिरस्थितियों को देखते हुए अपीलकर्ता को तलाक की अनुमति गुजारा भत्ता की राशि एकमुश्त देने पर स्वीकार कर ली है.